✨जब यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों ने भारत से व्यापार करना शुरू किया तो उनके सामने एक ही समस्या थी कि भारत से लाए गए सामान के बदले भारत को किस चीज की आपूर्ति की जाए। उन्हें वित्तीयन की समस्या और एशिया के साथ प्रतिकूल व्यापार संतुलन की समस्या से जूझना पड़ा। उन्होंने सोलहवीं शताब्दी में दक्षिण अमेरिका की खानों से सोना और चांदी निकालकर यूरोप को समृद्ध किया और इसका उपयोग, अनिच्छुक रूप से, पूर्व से आयातित वस्तुओं को खरीदने में भी किया। यह दर्ज किया गया कि 1660 और 1699 के बीच पूरब को निर्यातित सोना और चांदी की मात्रा कुल निर्यात का 66 प्रतिशत थी। 1680-89 के मध्य यह प्रतिशत बढ़कर 87 तक पहुंच गया। अंग्रेजों ने 1700 और 1750 के बीच 270 लाख रुपए कीमत की चांदी और 90 लाख की अन्य वस्तुएं भारत भेजीं। लेकिन 1750 के बाद औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ स्थितियों में परिवर्तन होना शुरू हो गया। 1760 और 1809 के बीच 140 लाख रुपए मूल्य की चांदी निर्यात की गई जबकि अन्य वस्तुओं का निर्यात 185 लाख तक बढ़ गया।
✨वाणिज्यवादी विश्वास के अनुसार, बुलियन (सोने-चांदी की ईंटें) का निर्यात किसी देश की अर्थव्यवस्था एवं समृद्धि के लिए नुकसानदेह होता है। अतः इस दौरान यूरोपीय कंपनियां पूरब की वस्तुओं के बदले दूसरी चीजें देने का विकल्प ढूंढ रही थीं। अंतर- एशियाई व्यापार पर कब्जा करके उन्होंने इस समस्या का आशिक समाधान खोजा। यूरोपीय व्यापार मसालों के द्वीप से लॉग और जापान से तांबा भारत और चीन तक पहुंचाते थे, भारतीय सूती वस्त्र को दक्षिण-पूर्व एशिया और फारसी कालीन भारत पहुंचाते थे और इस तरह भारत से आयातित माल का कुछ मूल्य चुकाते थे। हालांकि 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही, अंग्रेज व्यापार घाटे का सम्पूर्ण समाधान तभी प्राप्त कर पाए, जब अंग्रेजों ने बंगाल से राजस्व वसूलना शुरू किया और चीन को अफीम का निर्यात करने लगे।
✨सोलहवीं और सबके दौरान# गई वस्तुओं की यूरोप, अफ्रीका, अमेरिकी महाद्वीप और पूर्व से भारी मुनाफा कमाते थे। यूरोपीय शक्तियों ने यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के बीच एक त्रिकोणीय व्यापार आरंभ किया। यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियां अमेरिका के बागानों के लिए दामों की नियुक्ति करती थीं और दाम से लाए जाते थे। इस पृष्ठभूमि में पूरव के साथ व्यापार आगे बढ़ा।
✨आरंभ से ही, यूरोपीय बाजारों में मसालों की मांग अत्यधिक थी। सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में काली मिर्च का व्यापार अपने उत्कर्ष पर था। हालांकि, सत्रहवीं शताब्दी का अंत होते-होते व्यापार में दूसरी वस्तुओं का भी महत्व बढ़ा। मसाले के स्थान पर कपड़ा, रेशम और शोरा का महत्व तेजी से बढ़ा। सत्रहवीं शताब्दी के दूसरे दशक से अंग्रेजी और डब कंपनियों में भारतीय वस्त्रों की मांग बढ़ गई। एशिया के दूसरे देशों में भारतीय कपड़ों की मांग बहुत थी और इसका उपयोग विनिमय वस्तु के रूप में किया जाता था। भारतीय कपड़े अपनी विविधता, उत्कृष्टता, प्रकार और डिजाइन के लिए प्रसिद्ध थे। उदाहरणार्थ, गुजरात, कोरोमण्डल और बंगाल में साढ़े, रंगे हुए, कढ़ाई वाले विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उत्पादन किया जाता था। भारतीय रेशम और मलमल, मोटे और परिष्कृत दोनों प्रकार के, यूरोप और साथ ही साथ अफ्रीका और वेस्टइंडीज के बाजारों में भी पाए जाते थे। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1614 में अंग्रेज कंपनी ने सूरत से 12,000 कपड़े के थान की मांग की, जो 1664 में 750,000 थान से भी अधिक पहुंच गई जिसकी मात्रा कंपनी के समस्त व्यापार का 73 प्रतिशत आंकी गई। 1690 तक, कुल व्यापार में कपड़े का हिस्सा 83 प्रतिशत तक पहुंच गया। इस समय यूरोप में उच्च वर्गों के बीच बंगाल के मलमल और कोरोमंडल के छींटदार कपड़ों की मांग विशेष रूप से बढ़ गई।
✨इस बढ़ते हुए आयात से अंग्रेजी उत्पादक घबरा गए और उन्होंने भारतीय वस्त्रों के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए राजनीतिक दबाव डाला। इसके परिणामस्वरूप, अंग्रेजी सरकार ने 1700, 1721 और 1735 में विभिन्न संरक्षणवादी विनियम पारित किए। इसके अतिरिक्त सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय बाजार में कच्चे रेशम की भी मांग बढ़ी।
✨फ्रांसीसियों और अंग्रेजों द्वारा साल्टमीटर (शोरा), जिसका उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था, की बेतहाशा मांग की गई। इसके अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण कच्चा माल होते हुए, शोरा, भारी वस्तु होने के कारण, का उपयोग जहाजों को संतुलित करने में भी किया जा सकता था। पटना शोरे के व्यापार के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा। इसी प्रकार, नील भी आयात की एक अन्य वस्तु थी जिसका उपयोग कपड़ों को रंगने में किया जाता था, क्योंकि यूरोप में सीने के लिए प्रयोग होने वाले परम्परागत पौधे की पत्तियों की तुलना में सस्ता एवं प्रयोग करने में आसान था।
निष्कर्ष->यूरोपीय व्यापार की संरचना और तरीके
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