शुक्रवार, 2 जून 2023

गांधीजी की भारत वापसी ,चम्पारण सत्याग्रह (1917)

गांधीजी की भारत वापसी:--

गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भलीभांति परिचित हो चुका था। गांधीजी ने निर्णय किया कि वे अगले एक वर्ष तक समूचे देश का भ्रमण करेंगे तथा जनसामान्य की यथास्थिति का स्वयं अवलोकन करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक मुद्दे पर कोई सार्वजनिक कदम नहीं उठायेंगे। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। नरमपंथी राजनीति से उनकी आस्था पहले ही खत्म हो चुकी थी तथा वे होमरूल आंदोलन की इस रणनीति के भी खिलाफ थे कि अंग्रेजों पर कोई भी मुसीबत उनके लिये एक अवसर है। यद्यपि होमरूल आंदोलन इस समय काफी लोकप्रिय था किन्तु इसके सिद्धांत गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। उनका मानना था कि ऐसे समय में जबकि ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में उलझा हुआ है, होमरूल आंदोलन को जारी रखना अनुचित है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने सर्वोत्तम मार्ग है--अहिंसक सत्याग्रह। 

उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग को नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते। तीन संघर्थी- चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दोनों रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने से पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों से सम्बद्ध थे। इनमें अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा धम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।
चम्पारण सत्याग्रह (1917) -
 प्रथम सविनय अवज्ञा शरण का मामला काफी पुराना था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान निकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3-20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था तिनकारियाद्ध के नाम से जानी जाती थी। 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंग का विकास हो गया, जिसने नील को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान अन्य करों की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।

फलतः गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, बृज किशोर, मजहर उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि जे.बी. कृपलानी के सहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी के चम्पारण पहुंचते ही अधिकारियों ने उन्हें तुरन्त चम्पारण से चले जाने का आदेश दिया। किन्तु गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया तथा किसी भी प्रकार के दंड करें भुगतने का फैसला किया। सरकार के इस अनुचित आदेश के रुद्ध प्रतिरोध या सत्याग्रह का यह मार्ग चुनना विरोध का सर्वोत्तम तरीका था। गांधीजी की दृढ़ता के सम्मुख सरकार विवश हो गयी, अतः उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चम्पारण के गांवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया। इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।

 गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये। बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को सीटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम बुद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया। चम्पारन सत्याग्रह से सम्बद्ध अन्य लोकप्रिय नेताओं में अनुग्रह नारायण सिन्हा, रामनवमी प्रसाद एवं शंभुशरण वर्मा शामिल थे।

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