बुधवार, 5 जुलाई 2023

बंगाल में द्वैध शासन (1765-72),द्वैध शासन का अंत.....

बंगाल में द्वैध शासन (1765-72)

वक्सर के युद्ध के पश्चात्, रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत की जिसमें दीवानी (राजस्व वसूलने) और निजामत (पुलिस एवं न्यायिक कार्य) दोनों कंपनी के नियंत्रण में आ गए। कंपनी ने दीवान के रूप में दीवानी अधिकारों का और डिप्टी सूबेदार को नियुक्त करके निजामत अधिकारों का प्रयोग किया। कंपनी ने मुगल शासक से दीवानी कार्य हासिल किए और निजामत कार्य बंगाल के सूबेदार से प्राप्त किए।


द्वैध शासन इसलिए कि प्रशासनिक दायित्व तो बंगाल के नवाब पर था, जबकि राजस्व वसूली का दायित्व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर प्रशासन की रीढ़ अर्थ या वित्त होता है, किंतु 1765 ई. के अगस्त महीने में स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था के अनुसार वित्त अर्थात् कर वसूली का अधिकार कम्पनी को मिला, जबकि प्रशासन नवाव
के हाथों में बने रहने दिया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि नवाब और कम्पनी दोनों की अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता थी। दीवानी का अधिकार प्राप्त हो जाने से कम्पनी की स्थिति में आमूल परिवर्तन हो गया। दीवानी का कार्य मालगुजारी के साथ-साथ आशिक स्तर पर न्याय करना भी था। रॉबर्ट क्लाइव ने दीवानी का भार बंगाल में मुहम्मद रजा खां तथा बिहार में राजा सिताब राय नामक दो भारतीय अधिकारियों को सौंपा। प्रमुख दीवानी कार्यालय मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित किए गए। शासन-प्रबंध और फौजदारी के मामलों को सुलझाने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब को 53 लाख रुपए वार्षिक देना निश्चित किया। उस समय बंगाल का नवाब अल्पवयस्क था, इसलिए मुहम्मद रजा खां को नायब सूबेदार की संपूर्ण शक्ति सौंप दी गई और अब नवाब नाममात्र का शासक रह गया। इस तरह कम्पनी ने प्रशासन पर भी अपना प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर लिया।

द्वैध शासन के दोषः
 रॉबर्ट क्लाइव एक कुशल सेनापति के साथ-साथ अच्छा प्रशासक और सफल कूटनीतिज्ञ भी था उसने द्वैध शासन की स्थापना कर बंगाल, 1 बिहार और उड़ीसा में अंग्रेजी शक्ति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इस शासन प्रबंध से कम्पनी की आय में 30 लाख पौण्ड की वृद्धि हो गई। किंतु इस व्यवस्था के लागू होने के कुछ दिनों बाद ही इसमें अनेक प्रकार के दोष समाहित होने लगे। व्यवहारिक दृष्टि से द्वैध शासन का प्रबंध पूर्ण रूप से असफल रहा तथा इसके परिणाम बुरे निकले। एक ओर प्रशासन का पूरा दायित्व उठाने में नवाब असमर्थ था, क्योंकि एक तो वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर था और दूसरे कम्पनी का उस पर नियंत्रण था, जबकि दूसरी और अंग्रेजी कम्पनी के हाथों में शक्ति थी, तो उसके पास प्रशासन का कोई दायित्व नहीं था।

प्रशासन ठीक चल रहा है या नहीं, इस बात की ओर ध्यान देने वाला कोई भी नहीं कम्पनी ने अधिक-से-अधिक धन की उगाही को ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया।प्रशासन ठीक चल रहा है या नहीं, इस बात की ओर ध्यान देने वाला कोई भी नहींथा। प्रशासन के प्रति नवाब और कम्पनी की इस उपेक्षा का शिकार जनता को होना पड़ा। नवाब की शक्ति सीमित होने के कारण कम्पनी के अधिकारी नवाब की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। राजस्व वसूली के लिए कम्पनी द्वारा नियुक्त जमींदारों ने कृषकों का अमानवीय शोषण आरंभ कर दिया। इससे जनसाधारण की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। व्यापार की स्थिति भी बदतर हो गई। कम्पनी के अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों का नकारात्मक प्रभाव बंगाल के उद्योग-धंधों पर भी पड़ा - यहां का कुटीर उद्योग धीरे-धीरे बंद हो गया और शिल्पियों ने या तो अन्य व्यवसाय अपना लिए या बेरोजगारी का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए।

द्वैध शासन का अंतः
क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन प्रबंध की स्थापना को इसलिए महत्त्व दिया था, क्योंकि उस समय बंगाल जैसे विशाल प्रांत का संपूर्ण शासन प्रबंध अपने हाथों में लेने के लिए कम्पनी के पास पर्याप्त अधिकारी नहीं थे। क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन को 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने समाप्त कर दिया। द्वैध शासन की समाप्ति का आधार हेस्टिंग्स ने इस व्यवस्था के दोषों के निराकरण को बताया। उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नायब दीवान मुहम्मद रजा खां और राजा सिताब राय को पदमुक्त कर दिया तथा शासन का संपूर्ण दायित्व अपने हाथों में ले लिया। हेस्टिंग्स ने मुर्शिदाबाद और पटना के राजस्व बोर्ड को समाप्त कर कलकत्ता में एक राजस्व परिषद् की स्थापना की। देशी समाहर्त्ताओं (कलक्टरों) के स्थान पर अंग्रेजी समाहर्त्ताओं की नियुक्ति की गई। हेस्टिंग्स ने बंगाल के नवाब को शासन कार्य से पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया तथा उसके लिए 16 लाख रुपए वार्षिक की पेंशन निश्चित कर दी।

1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट से बंगाल के गवर्नर के पद को गवर्नर जनरल का पद बना दिया गया तथा भारत की तत्कालीन सभी प्रेसिडेंसियों का शासन भार उसके हाथों में सौंप दिया गया। 1773 ई. में वारेन हेस्टिंग्स को पहला गवर्नर जनरल बनाया गया। इस तरह से बंगाल, भारत में ब्रिटिश राजनीति का केंद्र बन गया और कम्पनी ने यहीं से अपने साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया शुरू की.

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