सोमवार, 17 जुलाई 2023

प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी

बाबा रामदेव:-

सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि राज्यों में 'रामसा पीर', 'रुणीचा रा धणी' व 'बाबा रामदेव' आदि नामों से प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी का जन्म तंवर वंशीय ठाकुर अजमालजी के यहाँ हुआ। इनकी माता का नाम मैणादे था। ये अर्जुन के वंशज माने जाते हैं। • रामदेवजी का जन्म भाद्रपद शुक्ला द्वितीया वि.सं. 1462(सन् 1405 ई.) को बाड़मेर की शिव तहसील के उण्डु कासमेर गाँव में हुआ

तथा भाद्रपद सुदी एकादशी वि.सं.1515 (सन् 1458) को इन्होंने रूणीचा के राम सरोवर के किनारे जीवित समाधि ली थी। इनका विवाह अमरकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में) के सोढ़ा राजपूत दलै सिंह की पुत्री निहालदे (नेतलदे) के साथ हुआ था।


✏️ रामदेवजी ने समाज में व्याप्त छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि बुराइयों को दूर कर सामाजिक समरसता स्थापित की थी। अतः सभी जातियों (विशेषत: निम्न जातियों के) एवं सभी समुदायों के लोग इनको पूजते हैं। ये अपनी वीरता और समाज सुधार के कारण पूज्य हुए। • हिन्दू इन्हें कृष्ण का अवतार मानकर तथा मुसलमान 'रामसा पीर' के रूप में इनकी पूजा करते हैं।

• रामदेवजी के बड़े भाई वीरमदेव को 'बलराम का अवतार' माना जाता है। रामदेवजी को 'विष्णु का अवतार' भी मानते हैं।

• कामड़िया पंथ रामदेवजी से प्रारम्भ हुआ माना जाता है।

इनके गुरु का नाम बालीनाथ था। ऐसी मान्यता है कि रामदेवजी ने बाल्यावस्था में ही सातलमेर (पोकरण) क्षेत्र में तांत्रिक भैरव राक्षस का वध कर उसके आतंक को समाप्त किया एवं जनता को कष्ट से मुक्ति दिलाई। रामदेवजी ने पोकरण कस्बे को पुनः बसाया तथा रामदेवरा (रूणीचा) में रामसरोवर का निर्माण करवाया। रामदेवरा जैसलमेर शहर (जिला मुख्यालय) से पूर्व दिशा में स्थित है।

• रामदेवरा (रुणीचा) में रामदेवजी का विशाल मंदिर है, जहाँ हर वर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वितीया से एकादशी तक विशाल मेला भरता है, जिसकी मुख्य विशेषता साम्प्रदायिक सद्भाव है, क्योंकि यहाँ हिन्दू-मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के लोग बड़ी मात्रा में पूरी श्रद्धा के साथ आते हैं। भाद्रपद द्वितीया को जन्मोत्सव एवं भाद्रपद दशमी को समाधि उत्सव होता है। इस मेले का दूसरा आकर्षण रामदेवजी की भक्ति में कामड़ जाति की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला तेरहताली नृत्य है। इनके अन्य मंदिर जोधपुर के पश्चिम में मसूरिया पहाड़ी पर, • बिरोटिया (ब्यावर, अजमेर) एवं सुरताखेड़ा (चित्तौड़गढ़) में भी हैं, जहाँ इनके मेले भरते हैं। इनका एक मंदिर 'छोटा रामदेवरा' गुजरात में भी है। • रामदेवजी के प्रतीक चिह्न के रूप में खुले चबूतरे पर ताख (आला) बनाकर उसमें संगमरमर या पीले पत्थर के इनके पगल्ये या पगलिए (चरण चिह्न) बनाकर गाँव-गाँव में पूजे जाते हैं। इनके मेघवाल भक्तजनों को 'रिखिया' कहते हैं। रामदेवजी के भक्त इन्हें श्रद्धापूर्वक कपड़े का बना घोड़ा चढ़ाते हैं। रामदेव जी का घोड़ा 'लीला' था।

• भाद्रपद शुक्ला द्वितीया 'बाबे री बीज' (दूज) के नाम से पुकारी जाती है तथा यही तिथि रामदेवजी के अवतार की तिथि के रूप में भी लोक

• बाबा रामदेव के चमत्कारों को 'पर्चा' एवं इनके भक्तों द्वारा गाये जाने वाले भजनों को 'ब्यावले' कहते हैं।
रामदेवजी के मंदिरों को 'देवरा' (या देवल) कहा जाता है, जिन पर श्वेत या 5 रंगों की ध्वजा, 'नेजा' फह जाती है। ध्वजा पर लाल रंग के कपड़े से रामदेवजी के चरण बने होते हैं।

• रामदेवजी ही एक मात्र ऐसे देवता हैं, जो एक कवि भी थे। इनकी रचित 'चौबीस बाणियाँ' प्रसिद्ध हैं।

• रामदेवजी के नाम पर भाद्रपद द्वितीया व एकादशी को रात्रि जागरण किया जाता है, जिसे 'जम्मा' कहते हैं। भक्तजन 'रिखियों' से कराते हैं।

✏️डालीबाई रामदेवजी की अनन्य भक्त थी। रामदेवजी ने इसे अपनी धर्म बहन बनाया था। डालीबाई ने रामदेव जी से एक दिन पूर्व उनके पास ही जीवित समाधि ले ली थी। वहीं डाली बाई का मंदिर है।
मक्का से आये पाँच पीरों को रामदेवजी ने 'पंच पीपली' स्थान पर पर्चा दिया था। इन पंच पीरों ने रामदेवजी की शक्तियों एवं चमत्कारों से अभिभूत हो उनसे कहा था कि, 'म्हें तो केवल पीर हाँ और थे पीरों का पीर'। • जिस विशिष्ट योगदान के लिए रामदेवजी की पूजा होती है वह है समाज की सभी जातियों और धर्मों के अनुयायियों के साथ समान व्यवहार।।

इन्होंने छुआछूत का बहिष्कार कर सबको अपनाया। • रामदेवजी एक वीर योद्धा होने के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे। उनका जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था में बिल्कुल भी विश्वास नहीं था।

उनके अनुसार संसार में ऊँच-नीच जैसी कोई चीज नहीं है। उन्होंने हरिजनों को गले के हार के हीरे-मोती व मूंगे बतलाया। • रामदेवजी की चूरमा, मिठाई, दूध, नारियल और धूप आदि से पूजा होती है।।

• रामदेवजी की पड़ मुख्यतः जैसलमेर व बीकानेर में बाँची जाती है।

• रूणीचा (रामदेवरा) में इनके पुजारी तँवर राजपूत होते हैं। बाबा रामदेव की सौगन्ध को इनके भक्त 'रामदेवजी की आंण' कहते हैं। इनके भक्त कभी भी इनकी झूठी सौगन्ध नहीं खाते हैं।

• रामदेवजी की सोने या चाँदी के पत्तर पर मूर्ति खुदवाकर गले में पहनी जाती है। इस पतरे को 'फूल' कहते हैं।

• रामदेवजी गुरु के महत्त्व को स्वीकारते हुए कहते थे कि भवसागर से गुरु ही पार उतार सकता है। उनका मूर्तिपूजा में कोई विश्वास नहीं था। वे तीर्थ यात्रा के भी विरोधी थे। उन्होंने कहा कि गुरु के आदेशों पर चलने से अमरज्योति मिल जाती है। इस हेतु उन्होंने सर्वश्रेष्ठ मार्ग' अजपाजाप' बतलाया।

• रामदेवजी का ब्यावला (पूनमचंद द्वारा रचित), श्री रामदेवजी चरित (ठाकुर रुद्र सिंह तोमर), श्रीरामदेव प्रकाश (पुरोहित रामसिंह), रामसापीर अवतार लीला (ब्राह्मण गौरीदासात्मक) एवं श्रीरामदेवजी री वेलि (हरजी भाटी) आदि इन पर लिखे गए प्रमुख ग्रंथ हैं।

बुधवार, 5 जुलाई 2023

बंगाल में द्वैध शासन (1765-72),द्वैध शासन का अंत.....

बंगाल में द्वैध शासन (1765-72)

वक्सर के युद्ध के पश्चात्, रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत की जिसमें दीवानी (राजस्व वसूलने) और निजामत (पुलिस एवं न्यायिक कार्य) दोनों कंपनी के नियंत्रण में आ गए। कंपनी ने दीवान के रूप में दीवानी अधिकारों का और डिप्टी सूबेदार को नियुक्त करके निजामत अधिकारों का प्रयोग किया। कंपनी ने मुगल शासक से दीवानी कार्य हासिल किए और निजामत कार्य बंगाल के सूबेदार से प्राप्त किए।


द्वैध शासन इसलिए कि प्रशासनिक दायित्व तो बंगाल के नवाब पर था, जबकि राजस्व वसूली का दायित्व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर प्रशासन की रीढ़ अर्थ या वित्त होता है, किंतु 1765 ई. के अगस्त महीने में स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था के अनुसार वित्त अर्थात् कर वसूली का अधिकार कम्पनी को मिला, जबकि प्रशासन नवाव
के हाथों में बने रहने दिया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि नवाब और कम्पनी दोनों की अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता थी। दीवानी का अधिकार प्राप्त हो जाने से कम्पनी की स्थिति में आमूल परिवर्तन हो गया। दीवानी का कार्य मालगुजारी के साथ-साथ आशिक स्तर पर न्याय करना भी था। रॉबर्ट क्लाइव ने दीवानी का भार बंगाल में मुहम्मद रजा खां तथा बिहार में राजा सिताब राय नामक दो भारतीय अधिकारियों को सौंपा। प्रमुख दीवानी कार्यालय मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित किए गए। शासन-प्रबंध और फौजदारी के मामलों को सुलझाने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब को 53 लाख रुपए वार्षिक देना निश्चित किया। उस समय बंगाल का नवाब अल्पवयस्क था, इसलिए मुहम्मद रजा खां को नायब सूबेदार की संपूर्ण शक्ति सौंप दी गई और अब नवाब नाममात्र का शासक रह गया। इस तरह कम्पनी ने प्रशासन पर भी अपना प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर लिया।

द्वैध शासन के दोषः
 रॉबर्ट क्लाइव एक कुशल सेनापति के साथ-साथ अच्छा प्रशासक और सफल कूटनीतिज्ञ भी था उसने द्वैध शासन की स्थापना कर बंगाल, 1 बिहार और उड़ीसा में अंग्रेजी शक्ति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इस शासन प्रबंध से कम्पनी की आय में 30 लाख पौण्ड की वृद्धि हो गई। किंतु इस व्यवस्था के लागू होने के कुछ दिनों बाद ही इसमें अनेक प्रकार के दोष समाहित होने लगे। व्यवहारिक दृष्टि से द्वैध शासन का प्रबंध पूर्ण रूप से असफल रहा तथा इसके परिणाम बुरे निकले। एक ओर प्रशासन का पूरा दायित्व उठाने में नवाब असमर्थ था, क्योंकि एक तो वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर था और दूसरे कम्पनी का उस पर नियंत्रण था, जबकि दूसरी और अंग्रेजी कम्पनी के हाथों में शक्ति थी, तो उसके पास प्रशासन का कोई दायित्व नहीं था।

प्रशासन ठीक चल रहा है या नहीं, इस बात की ओर ध्यान देने वाला कोई भी नहीं कम्पनी ने अधिक-से-अधिक धन की उगाही को ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया।प्रशासन ठीक चल रहा है या नहीं, इस बात की ओर ध्यान देने वाला कोई भी नहींथा। प्रशासन के प्रति नवाब और कम्पनी की इस उपेक्षा का शिकार जनता को होना पड़ा। नवाब की शक्ति सीमित होने के कारण कम्पनी के अधिकारी नवाब की आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। राजस्व वसूली के लिए कम्पनी द्वारा नियुक्त जमींदारों ने कृषकों का अमानवीय शोषण आरंभ कर दिया। इससे जनसाधारण की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। व्यापार की स्थिति भी बदतर हो गई। कम्पनी के अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों का नकारात्मक प्रभाव बंगाल के उद्योग-धंधों पर भी पड़ा - यहां का कुटीर उद्योग धीरे-धीरे बंद हो गया और शिल्पियों ने या तो अन्य व्यवसाय अपना लिए या बेरोजगारी का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए।

द्वैध शासन का अंतः
क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन प्रबंध की स्थापना को इसलिए महत्त्व दिया था, क्योंकि उस समय बंगाल जैसे विशाल प्रांत का संपूर्ण शासन प्रबंध अपने हाथों में लेने के लिए कम्पनी के पास पर्याप्त अधिकारी नहीं थे। क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन को 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने समाप्त कर दिया। द्वैध शासन की समाप्ति का आधार हेस्टिंग्स ने इस व्यवस्था के दोषों के निराकरण को बताया। उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नायब दीवान मुहम्मद रजा खां और राजा सिताब राय को पदमुक्त कर दिया तथा शासन का संपूर्ण दायित्व अपने हाथों में ले लिया। हेस्टिंग्स ने मुर्शिदाबाद और पटना के राजस्व बोर्ड को समाप्त कर कलकत्ता में एक राजस्व परिषद् की स्थापना की। देशी समाहर्त्ताओं (कलक्टरों) के स्थान पर अंग्रेजी समाहर्त्ताओं की नियुक्ति की गई। हेस्टिंग्स ने बंगाल के नवाब को शासन कार्य से पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया तथा उसके लिए 16 लाख रुपए वार्षिक की पेंशन निश्चित कर दी।

1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट से बंगाल के गवर्नर के पद को गवर्नर जनरल का पद बना दिया गया तथा भारत की तत्कालीन सभी प्रेसिडेंसियों का शासन भार उसके हाथों में सौंप दिया गया। 1773 ई. में वारेन हेस्टिंग्स को पहला गवर्नर जनरल बनाया गया। इस तरह से बंगाल, भारत में ब्रिटिश राजनीति का केंद्र बन गया और कम्पनी ने यहीं से अपने साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया शुरू की.

मंगलवार, 27 जून 2023

बारदोली सत्याग्रह आंदोलन :-वल्लभभाई पटेल को आंदोलन की महिलाओं ने सरदार की उपाधि से विभूषित किया। .....{Bardoli Satyagraha Movement :- Political activity in Bardoli taluka of Surat district of Gujarat.....}

बारदोली सत्याग्रह आंदोलन:-

भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर गांधीजी के पदार्पण के पश्चात गुजरात के सूरत जिले के बारदोली तालुके में राजनीतिक गतिविधियों में तेजी आयी। यहां परिस्थितियां उस समय तनावपूर्ण हो गयीं, जब जनवरी 1926 में स्थानीय प्रशासन ने भू-राजस्व की दरों में 30 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा की। यहां के कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने इस वृद्धि का तीव्र विरोध किया। परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने समस्या के समाधान हेतु 'बारदोली जांच आयोग का गठन किया। आयोग ने संस्तुति दी कि भू-राजस्व की दरों में की गयी वृद्धि अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है। फरवरी 1926 में, वल्लभभाई पटेल को आंदोलन की महिलाओं ने सरदार की उपाधि से विभूषित किया।



सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने बढ़ी हुई दरों पर भू-राजस्व अदा करने से इंकार कर दिया तथा सरकार के सम्मुख यह मांग रखी कि जब तक सरकार समस्या के समाधान हेतु किसी स्वतंत्र आयोग का गठन नहीं करती या प्रस्तावित लगान वृद्धिवापस नहीं लेती तब तक वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे। आंदोलन को संगठित करने के लिये सरदार पटेल ने पूरे तालुके में 13 छावनियों की स्थापना की। आंदोलनकारियों के समर्थन में जनमत का निर्माण करने के लिये बारदोली सत्याग्रह पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया। आंदोलन के तरीकों का पालन सुनिश्चित करने के लिये एक 'बौद्धिक संगठन' भी स्थापित किया गया। जिन लोगों ने आंदोलन का विरोध किया, उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु भी अनेक कदम उठाये गये। के. एम. मुंशी तथा लालजी नारंजी ने आंदोलन के समर्थन में बंबई विधान परिषद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।



अगस्त 1928 तक पूरे क्षेत्र में आंदोलन पूर्णरूप से सक्रिय हो चुका था। आंदोलन के समर्थन में बंबई में रेलवे हड़ताल का आयोजन किया गया। पटेल की गिरफ्तारी की संभावना को देखते हुए 2 अगस्त 1928 को गांधीजी भी बारदोली पहुंच गये। सरकार अब आंदोलन को शांतिपूर्ण एवं सम्मानजनक ढंग से समाप्त किये जाने का प्रयास करने लगी। सरकार ने एक 'जांच समिति' गठित करना स्वीकार कर लिया। तदुपरांत गठित ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल समिति ने भू-राजस्व में बढ़ोत्तरी को गलत बताया और बढ़ोत्तरी 30 प्रतिशत से घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दी गयी। इस प्रकार बारदोली सत्याग्रह की सफल ऐतिहासिक परिणति हुई।

मंगलवार, 20 जून 2023

ताशकंद में शांति समझौता और शास्त्रीजी की रहस्यपूर्ण मृत्यु(Tashkent Agreement and the mysterious death of a great Prime Minister Lal Bahadur Shastri)


ताशकंद में शांति समझौता

ताशकंद (उज्बेकिस्तान की राजधानी, जो तत्कालीन सोवियत संघ का एक गणराज्य था) में जनवरी 1966 में एक दक्षिण एशिया शांति सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे सोवियत राष्ट्रपति अलेक्सी कोसिगिन द्वारा प्रायोजित किया गया। यह कोसिगिन की मध्यस्थता से संभव हो सका था कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री मिले और अपने देशों के बीच सामान्य एवं शांतिपूर्ण संबंधों को पुनः स्थापित करने तथा अपने लोगों के बीच समझ और मैत्रीपूर्ण संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए।

ताशकंद घोषणा का अर्थ था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बनाए रखने के लिए एक रूपरेखा बनाना। यह विश्वास किया गया कि दोनों पक्ष स्वयं किसी समझौते पर नहीं पहुंच सकते और इसके लिए सोवियत नेताओं द्वारा तैयार मसौदे पर उन्हें हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया। हालांकि, इसे भारत में पूर्ण अनुमोदन नहीं मिला। आलोचकों ने महसूस किया कि समझोता होना चाहिए लेकिन इसमें कोई युद्ध नहीं' समझौता नहीं किया गया और न ही ऐसा कोई प्रावधान था कि पाकिस्तानको कश्मीर में गुरिल्ला आक्रमण को छोड़ देना चाहिए। पाकिस्तान में, समझौते पर बेहद तीखी नाराजगी जाहिर की गई। इसके विरोध में वहां दंगे एवं प्रदर्शन हुए। जुल्फिकार भुट्टो ने अयूब खान एवं इस समझौते से दूरी बना ली, और अंत में इससे अलग होकर अपना खुद का राजनीतिक दल बना लिया।

पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा सितम्बर युद्ध के बाद शांति स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाते हुए ताशकंद समझौता किया गया जिसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं-

 1. भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने-अपने झगड़ों कोशांतिपूर्ण ढंग से तय करेंगे।

2. दोनों देश 25 फरवरी, 1966 तक अपनी सेनाएं 5 अगस्त, 1965 की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे। 

3. इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएं तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएं जारी रहेंगी।

4. भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेपन करने पर आधारित होंगे।

5. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध फिर से स्थापित कर दिए जाएंगे।

6. एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा।

7. आर्थिक एवं व्यापारिक संबंधों तथा संचार संबंधों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा।

8. ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाएंगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो। 

9. शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर भी विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में जब्त की गई एक-दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।

इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएं उस सीमा रेखा पर वापस लौट गई, जहां पर ये युद्ध के पूर्व में तैनात थीं। परंतु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन संबंधों पर गहरा प्रभाव पहा ।


शास्त्रीजी की रहस्यपूर्ण मृत्यु


11 जनवरी, 1966 की सुबह, ताशकंद घोषणा के हस्ताक्षर के बाद वाली सुबह, लाल बहादुर शास्त्री हृदयाघात से प्राणहीन हो गए। उनकी मृत्यु पर विवाद उत्पन्न हो गया और साथ ही अफवाह फैली कि उन्हें जहर देकर मारा गया है। इस मामले में सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (अमेरिका की सीआईए) का हाथ होने का भी संदेह था, जैसाकि पश्चिम भारत की आणविक महत्वाकांक्षाओं को लेकर शंका में था और दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन में मुश्किल हो रही थी। यह विवाद अभी तक खत्म नहीं हुआ है।
पहली जांच राजनारायण ने करवाई थी, जो बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गई। और भारतीय संसद लाइब्रेरी में उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वर्ष 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से जवाब दिया गया कि शास्त्री जी के निजी डॉक्टर आर. एन. चुघ और रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जांच तो की थी परंतु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वर्ष 2009 में 'साउथ एशिया पर सीआईए की नजर' नामक पुस्तक के लेखक अनुज घर ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गई जानकारी पर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से यह कहा गया कि, "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज सार्वजनिक करने से हमारे देश के अंतरराष्ट्रीय संबंध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषाधिकारों को भी ठेस पहुंच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिसमें इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता" ।

सोमवार, 19 जून 2023

नील आंदोलन - किसानो की अंग्रजो के अत्याचारों के विरुद्ध की लड़ाई और विजयIndigo Movement - Victory of the farmers against the British]

नील आंदोलन (1859-60):->

अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों का पहला जुझारू एवं संगठित विद्रोह नील विद्रोह था। 1859-60 ई. में बंगाल में हुए इस विद्रोह ने प्रतिरोध की एक मिसाल ही स्थापित कर दी। यूरोपीय बाजारों की मांग की पूर्ति के लिये नील उत्पादकों ने किसानों को नील की अलाभकर खेती के लिये बाध्य किया। जिस उपजाऊ जमीन पर चावल की अच्छी खेती हो सकती थी, उस पर किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाकर झूठे करार द्वारा नील की खेती करवायी जाती थी। करार के वक्त मामूली सी रकम अग्रिम के रूप में दी जाती थी और धोखा देकर उसकी कीमत बाजार भाव से कम आंकी जाती थी। और, यदि किसान अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाने का प्रयास भी करता था तो उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता था।

कालांतर में सत्ता के संरक्षण में पल रहे नील उत्पादकों ने तो करार लिखवाना भी छोड़ दिया और लठैतों को पालकर उनके माध्यम से बलात नील की खेती शुरू कर दी। वे किसानों का अपहरण, अवैध बेदखली, लाठियों से पीटना, उनकी महिलाओं एवं बच्चों को पीटना, उनके पशुओं को जब्त कर लेना तथा उनके घरों एवं फसलों को जलाने जैसे क्रूर हथकंडे अपनाने लगे।

नील आंदोलन की शुरुआत 1859 के मध्य में बड़े नाटकीय ढंग से हुई। एक सरकारी आदेश को समझने में भूलकर कलारोवा के डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया, जिससे किसान अपनी इच्छानुसार भूमि पर उत्पादन कर सकें। बस, शीघ्र ही किसानों ने नील उत्पादन के खिलाफ अर्जियां देनी शुरू कर दीं। पर, जब क्रियान्वयन नहीं हुआ तो दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नादिया जिले के गोविंदपुर गांव के किसानों ने विद्रोह कर दिया। जब सरकार ने बलपूर्वक युक्तियां अपनाने का प्रयास किया तो किसान भी हिंसा पर उतर आये। इस घटना से प्रेरित होकर आसपास के क्षेत्रों के किसानों ने भी उत्पादकों से अग्रिम लेने, करार करने तथा नील की खेती करने से इंकार कर दिया। बाद में किसानों ने जमींदारों के अधिकारों को चुनौती देते हुए उन्हें लगान अदा करना भी बंद कर दिया। यह स्थिति पैदा होने के पश्चात नीत उत्पादकों ने किसानों के खिलाफ मुकदमे दायर करना शुरू कर दिये तथा मुकदमे लड़ने के लिये धन एकत्र करना प्रारंभ कर, दिया। बदले में किसानों ने भी नील उत्पादकों की सेवा में लगे लोगों का सामाजिक बहिष्कार प्रारंभ कर दिया। इससे किसान शक्तिशाली होते गये तथा नील उत्पादकअकेले पड़ते गये। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

 उन्होंने किसानों के समर्थन में समाचार-पत्रों में लेख लिखे, जनसभाओं का आयोजन किया तथा उनकी मांगों के संबंध में सरकार को ज्ञापन सौंपे। हरीशचंद्र मुखर्जी के पत्र हिन्दू पैट्रियट ने किसानों का पूर्ण समर्थन किया। दीनबंधु मित्र से नील दर्पण द्वारा गरीब किसानों की दयनीय स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया।

स्थिति को देखते हुए सरकार ने नील उत्पादन की समस्याओं पर सुझाव देने के लिये नील आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें किसानों को यह आश्वासन दिया गया कि उन्हें नील उत्पादन के लिये विवश नहीं किया जायेगा तथा सभी संबंधित विवादों को वैधानिक तरीकों से हल किया जायेगा। कोई चारा न देखकर नील उत्पादकों ने बंगाल से अपने कारखाने बंद करने प्रारम्भ कर दिये तथा 1860 तक यह विवाद समाप्त हो गया।

मंगलवार, 13 जून 2023

✏️आँध्रप्रदेश का विभाजन और तेलंगाना का गठन[Division of Andhra Pradesh and formation of Telangana]:->

📖तेलंगाना मुद्दा:->

📋मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में तेलंगाना के पृथक राज्य बनने का आंदोलन ती हो गया। वर्ष 2004 के चुनावों से पूर्व, कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के साथ गठबंधन किया और वचन दिया कि यदि वह सत्ता में आई तो वह आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना को एक पृथक राज्य बनाएगी। 2009 के चुनावों में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने बेहद अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन इस जीत को दिलाने वाले वाई.एस.आर. रेही, जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे ने राज्य के विभाजन का पूर्ण विरोध किया इन परिस्थितियों में केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस सरकार तेलंगाना राज्य बनाने के अपने वादे से पीछे हट गई। इसके साथ ही सरकार ने अपने एक अन्य वादे की भी उपेक्षा की कि कुछ बड़े राज्यों को विभाजित करने के लिए एक नई राज्य पुनर्गठन समिति का निर्माण किया जाएगा। ऐसा इसलिए किया गया कि लेफ्ट, जिनके समर्थन के बिना सरकार अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाती; ने इस विचार का पुरजोर विरोध किया।
📋वाई.एस.आर. रेड्डी एक हवाई दुर्घटना में मारे गए और तेलंगाना के लिए विरोध-प्रदर्शन को एक नया जीवन प्राप्त हुआ तथा इसकी कमान के. चंद्रशेखर राव (के.सी.आर.) ने संभाली। नवम्बर 2009 में, तेलंगाना को अलग राज्य बनाने को लेकर के. चंद्रशेखर राव आमरण अनशन पर बैठ गए। इसके समर्थन के लिए के.सी.आर. के हजारों समर्थक इकडे हो गए, जिस कारण हैदराबाद का जन-जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया। केंद्र सरकार ने दिसंबर 2009 में घोषणा की कि राज्य निर्माण की प्रक्रिया को शुरू किया जाएगा। इस निर्णय ने तटीय आंध्र प्रदेश के कांग्रेस सांसदों में अत्यधिक रोष उत्पन्न किया, लेकिन अंत में इसे स्वीकार कर लिया गया। 

📋पृथक राज्य के मामले पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी. एन. कृष्णा की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने दिसंबर 2010 में अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन टी. आर. एस. ने इसे अस्वीकृत कर दिया। काफी बातचीत के बाद, संसद ने फरवरी 2014 में तेलंगाना विधेयक पारित कर दिया। अधिनियम के अनुसार, आंध्र प्रदेश का नया तेलंगाना राज्य बनाने के लिए औपचारिक रूप से विभाजन किया गया। दोनों राज्य हैदराबाद को दस वर्ष तक राजधानी के रूप में साझा करेंगे, जिसके पश्चात् आंध्र प्रदेश की पृथक् राजधानी होगी, और केंद्र सरकार ने इसके निर्माण के लिए आंध्र प्रदेश (सीमांध्र भी कहा गया) को फंड प्रदान किया। [ केंद्र में नई सरकार के सत्तासीन होने के बाद, जून 2014 में वास्तविक रूप से तेलंगाना अस्तित्व में आया और के.सी. आर. वहां के प्रथम मुख्यमंत्री बने ।]

📋संयोगवश, मई 2011 राज्य सरकार के स्तर पर एक ऐतिहासिक बदलाव हुआ। पश्चिम बंगाल, जहां वाम पक्ष (लेफ्ट फ्रंट) 1977 से निरंतर शासन कर रहा था; ने निष्ठा परिवर्तन का निर्णय लिया और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को सत्ता सौंप दी। ममता बनर्जी, जो एक समय कांग्रेस में थीं और बाद में पार्टी छोड़कर टीएमसी का गठन किया, राज्य की नई मुख्यमंत्री बनीं।

शनिवार, 10 जून 2023

👉पंजाब अशांति और ऑपरेशन ब्लू स्टार

पंजाब अशांति और ऑपरेशन ब्लू स्टार:-

👉अलगाववादी ताकतों के सिर उठाने के साथ पंजाब में राजनीतिक संकट अत्यधिक व्यापक हो गया था। वस्तुतः इस संकट में कई परतें थीं। पंजाब में अधिक स्वायतत्ता के लिए तीखी मांग हो रही थी। अधिकतर सिख अपने पृथक् धर्म के संदर्भ में स्वयं को देखने लगे थे कि एक सिख राजनीतिक दल (अकाली) बिना केंद्रीय हस्तक्षेप के मुक्त रूप से राज्य पर शासन नहीं कर सकते। उन्होंने लम्बे समय तक स्वयं के एक राज्य के लिए प्रतीक्षा की, लेकिन चंडीगढ़ अभी भी हरियाणा के साथ साझा करना पड़ रहा था। नदी जल के बंटवारे को लेकर भी समस्या थी। 1973 में, अकालियों ने आनंदपुर प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें एक स्तर पर अधिक स्वायतत्ता की मांग की गई और दूसरे स्तर पर 'सिख राष्ट्र' शब्द का प्रयोग किया गया, जिसने भारतीय संघ से अलग होने का अर्थ प्रस्तुत किया।

👉अकालियों ने निरंकारी सिखों का विरोध किया जिन्हें विरोधी मानते थे। इस संदर्भ में जरनैल सिंह भिंडरेवाला का उदय हुआ। एक पुजारी या संत तथा दमदमी टकसाल के मुखिया के तौर पर, उसने जोरदार तरीके से निरंकारियों के विरुद्ध योता। उसने यह भी कहा कि स्वतंत्र भारत में वे दास की तरह हैं और हिंदुओं तथा 'आधुनिक सिख' का उपहास किया। ऐसा कहा गया कि अकालियों के विरुद्ध भिंडरेवाला को स्वयं कांग्रेस ने खड़ा किया। यदि ऐसा हुआ था, तो वह बेकाबू दानव बन गया था, और जल्द ही उसने अपनी अलग छवि बना ली थी। उसके बड़ी संख्या में अनुगामी भी बन गए थे।

✨1980 में, अकालियों को एक बड़ा धक्का लगा जब वे सत्ता से बाहर हो गए और राज्य में कांग्रेस सत्ता में आ गई।

✨भारत से स्वतंत्र एक मुक्त राज्य बनाने के आवेग को मुख्यतः इंग्लैंड, अमेरिका और कनाडा में रह रहे सिखों ने हवा दी। जून 1980 में, अमृतसर में स्वर्ण मंदिर (गोल्डन टेम्पल) में विद्यार्थियों के एक समूह की बैठक हुई जिसमें उन्होंने स्वतंत्र गणराज्य खालिस्तान के निर्माण की घोषणा की। इसके अध्यक्ष लंदन से जगजीत सिंह चौहान थे।


✨मिडरेवाला द्वारा शक्ति हासिल करने के साथ-साथ पंजाब की स्थिति बद से होती जा रही थी और कई प्रसिद्ध व्यक्तियों की हत्या में उसके हाथ होने की शंका थी जिसमें निरंकारी नेता भी शामिल थे। सरकार उसे दण्डित करने में निष्प्रभावी हो गई थी।

✨भिंडरेवाला पर नकेल कसने के प्रयास के विरुद्ध, अकाली अत्यधिक उग्र हो गए दे। उनके विधायकों ने 1983 के गणतंत्र दिवस के मौके पर राज्य विधानसभा से सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया। इसने स्पष्ट किया कि भारत के संविधान के प्रति उनकी प्रतिवद्धता दृढ़ नहीं थी। इस बीच, भिंडरेवाला अपने भाषणों में हिंदुओं के विरुद्ध जहर उगलने लगा था और हिंदुओं को राज्य से बाहर करने के लिए सिखों को हिंसा करने के लिए उकसा रहा था। सिखों के उदय / उद्गम के प्रकाश में हिंदुओं और सिखों के बीच संघर्ष होना असंभव था, लेकिन अब यह होने लगा था। केंद्र सरकार ने शांति बनाए रखने के लिए भिंडरेवाला को तैयार करने के प्रयास हेतु नरसिम्हा राव के नेतृत्व में एक दल भेजा लेकिन वार्ता असफल हो गई और पंजाब में कानून-व्यवस्था निरंतर बदतर होती चली गई।

✨खालिस्तानी आतंकवादियों ने, ऐसा कहा गया कि उन्हें पाकिस्तान प्रोत्साहित कर रहा था, धीरे-धीरे पंजाब में घुसना शुरू कर दिया था और प्रमुख हिंदुओं और सिख पदाधिकारियों की हत्याएं की जाने लगीं थीं। अक्टूबर, 1983 में, एक बस को रोका गया और उसमें बैठे हिंदुओं को गोली मार दी गई। केंद्र ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। भिंडरेवाला बिना किसी रुकावट के अकाल तख्त, स्वर्ण मंदिर के निकट सिखों की कालिक सत्ता की सीट जो आध्यात्मिक अधिकारिता की सीट थी, तक पहुंच गया। 1984 के शुरू में, भिंडरेवाला और उसके सहयोगियों ने स्वर्ण मंदिर परिसर की किलेबंदी करनी शुरू कर दी और इसमें शस्त्र एवं गोला-बारूद और साथ ही खाने की वस्तुओं को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। यह सब शुवेग सिंह, भारतीय सेना में मेजर जनरल था और भारतीय सेना का बीर सिपाही रहा था जिसे बाद में बर्खास्त कर दिया
यह सब शुवेग सिंह, भारतीय सेना में मेजर जनरल था और भारतीय सेना का वीर सिपाही रहा था जिसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया की देख-रेख में हो रहा था।

👉स्पष्ट हो चुका था कि कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख ए.एस. वैद्य की अनुशंसा पर ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने की अनुमति दे दी। 2 जून, 1984 की रात से 5 जून तक पंजाब राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया, संचार तथा परिवहन के सभी सायनों को निलम्बित कर दिया गया, और विद्युत आपूर्ति बंद कर दी गई। मीडिया को सख्ती से प्रतिबंधित कर दिया गया। 5 जून की रात को सेना ने मेजर जनरल के.एस. बरार की कमांड और जनरल के. सुंदरी के निर्देश के तहतु हरमंदिर साहिब पर सैन्य कार्यवाही की उग्रवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार थे और उन्होंने काफी समय तक गोलीबारी की। अंत में 7 जून की सुबह तक सेना को हरमंदिर साहिब पर पूर्ण नियंत्रण से पूर्व अकाल तख्त के विरुद्ध टैंकों का प्रयोग करना पड़ा। मिडरेवाला और शुवेग सिंह मृत पाए गए। जबकि कई उग्रवादी मारे जा चुके थे, कई सैनिक और नागरिक भी इस घटना में मारे गए थे। परिणामः इस ऑपरेशन से विश्व के सभी सिख परेशान एवं व्यथित हो गए। कई सिखों ने भारतीय सेना छोड़ दी। यहां तक कि सिख सैनिकों के विद्रोह की भी बात सामने आई। लेकिन इससे राज्य में आतंकवाद का अंत हुआ और फिलहाल स्वर्ग

✨मंदिर (गोल्डन टेम्पल) परिसर से हथियार एवं गोला-बारूद हटाए जा सके थे। लेकिन प्रधानमंत्री की हत्या को भी ऑपरेशन ब्लू स्टार के परिणाम के रूप में देखा गया 31 अक्टूबर, 1984 की सुबह, जब इंदिरा गांधी अपने घर से कार्यालय जा रही थीं, तो उनके अंगरक्षकों-बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने उन पर गोली चला दी। उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से जाया गया, लेकिन ये जीवित न बच सकीं। यद्यपि, सामान्य तौर पर पता चल चुका था कि इंदिरा गांधी मर चुकी थी, लेकिन ऑल इण्डिया रेडियो और दूरदर्शन ने इसकी आधिकारिक शाम को की

✨इंदिरा गांधी का युग समाप्त हो चुका था। उनके पुत्र राजीव गांधी को उसी शाम राष्ट्रपति जैल सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई, जैसाकि कांग्रेस नेताओं ने सर्वसम्मति से निर्णय किया था कि उन्हें यह पद संभालना चाहिए।

प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी

बाबा रामदेव:- सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि राज्यों में 'रामसा पीर', 'रुणीचा रा धणी' व '...