बुधवार, 31 मई 2023

महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू को अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना!{Why did Gandhi choose Nehru as his political successor}

गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना?

 आधुनिकता, धर्म, ईश्वर, राज्य और औद्योगीकरण पर नेहरू और गांधी के अलग-अलग विचार थे। नेहरू धर्म के प्रति उदासीन थे, जबकि गांधी जी की ईश्वर में गहरी आस्था थी। नेहरू का मानना ​​था कि औद्योगीकरण भारत में अत्यधिक गरीबी का एकमात्र समाधान था, जबकि गांधी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का आह्वान किया। नेहरू सामाजिक सुधार और गरीबी उन्मूलन में आधुनिक राज्य की शक्ति में विश्वास करते थे। जबकि गांधी राज्य की शक्ति के प्रति शंकालु थे, और इसके बजाय व्यक्तियों और समुदायों की चेतना और इच्छा शक्ति में विश्वास करते थे। कई मतभेदों के बावजूद नेहरू ने गांधीजी का सम्मान किया और गांधी ने नेहरू पर किसी से भी ज्यादा भरोसा किया। गुरु और शिष्य दोनों में मूलभूत समानताएँ थीं। दोनों ने देशभक्ति को एक समावेशी और समग्र अर्थ में देखा। उन्होंने भारत को किसी विशेष जाति, भाषा, क्षेत्र या धर्म के बजाय समग्र रूप में देखा। दोनों अहिंसा और लोकतांत्रिक सरकार में विश्वास करते थे।
राजमोहन गांधी ने अपनी पुस्तक 'द गुड बोटमैन' में लिखा है कि गांधी ने नेहरू को अपने विकल्प के रूप में स्वीकार किया, क्योंकि नेहरू ने भारत की बहुलतावादी और समावेशी प्रकृति को सबसे अधिक विश्वासपूर्वक प्रतिबिंबित किया था, जिस पर स्वयं महात्मा गांधी ने बल दिया था। लेकिन नेहरू एक हिंदू थे जिन पर मुसलमान भरोसा कर सकते थे, दक्षिण भारत में एक उत्तर भारतीय का सम्मान था, और एक पुरुष जिसकी महिलाएं प्रशंसा करती थीं।

सहायक संधि :-(subsidiary alliance) :- start of British rule {ब्रिटिश शासन की शुरुआत}

सहायक संधि[subsidiary alliance]->

यह एक प्रकार की मैत्री संधि थी, जिसका प्रयोग 1798-1805 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे लॉर्ड वेलेजली ने भारत के देशी राज्यों के संबंध में किया था। इस संधि के प्रयोग से भारत में अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी तथा नेपोलियन का भय भी टल गया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार में विशिष्ट भूमिका का निर्वहन किया तथा इसके द्वारा अंग्रेजों को भारत में एक विस्तृत क्षेत्र की प्राप्ति हुई।

यद्यपि वैलेजली इस संस्था का आविष्कारक नहीं था। इस प्रणाली का अस्तित्व पहले से ही था तथा वह धीरे-धीरे विकसित हुई। संभवतः डूप्ले प्रथम यूरोपीय या जिसने इस संधि का प्रयोग पहली बार भारत में किया। कालांतर में वेलेजली ने इसे व्यापक रूप से अपनाया। इस संधि की विशेषतायें निम्नानुसार थीं:-

 🔥 भारतीय राजाओं के विदेशी संबंध कंपनी के अधीन होंगे। वे कोई युद्ध नहीं करेंगे तथा अन्य राज्यों से विचार-विमर्श कंपनी करेगी।

🔥 बड़े राज्य अपने यहां अंग्रेजी सेना रखेंगे, जिसकी कमान अंग्रेज अधिकारियोंके हाथों में होगी। यद्यपि ये राज्य उस सेना का खर्च उठायेंगे। 

🔥राज्यों को अपनी राजधानी में एक अंग्रेज रेजिडेंट रखना होगा। 

🔥 राज्य, कंपनी की अनुमति के बिना किसी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रखेंगे।

🔥कंपनी, राज्य की शत्रुओं से रक्षा करेगी।

 🔥 कंपनी, राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

✨सबसे पहले यह संधि 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम से की गई। फिर मैसूर (1799), तंजीर (अक्टूबर 1799), अवध (नवंबर 1801), पेशवा (दिसंबर 1801 ), बराड़ के भोसले (दिसंबर 1803), सिंधिया (फरवरी 1801), जोधपुर, जयपुर, मच्छेड़ी, बूंदी तथा भरतपुर के साथ की गयी।

 इस संधि द्वारा अंग्रेजों को अत्यधिक लाभ मिला किंतु, भारतीय रियासतों को अत्यधिक हानि उठानी पड़ी। उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो गयी तथा वे अंग्रेजों की दया पर आश्रित हो गये। उन्हें आर्थिक बोझ भी वहन करना पड़ा। जिन राज्यों ने सहायक संधि स्वीकार की, उन पर इस व्यवस्था के दूरगामी । परिणाम हुए।

सोमवार, 29 मई 2023

🔥Swami Vivekananda's thoughts about India{ भारत के बारे में स्वामी विवेकानंद के विचार}

   स्वामी विवेकानंदः

इनका जन्म 1862 में हुआ। वे आध्यात्मिक जिज्ञासा के कारण रामकृष्ण के संपर्क में आये तथा उनके शिष्य बन गये। इन्होंने रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों को लोगों के बीच प्रचारित किया तथा इन्हें तत्कालीन भारतीय समाज के अनुरूप ज्यादा प्रासंगिक बनाने का प्रयास किया। वे नव-हिन्दूवाद के उपदेशक के रूप में उभरे। विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं एवं उपदेशों को प्रचारित करने के लिये 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। रामकृष्ण की शिक्षाओं, उपनिषद एवं गीता के दर्शन तथा बुद्ध एवं यीशु के उपदेशों को आधार बनाकर स्वामी विवेकानंद ने विश्व को मानव मूल्यों की शिक्षा दी। उन्होंने सामाजिक कर्म पर जोर दिया और कहा कि अगर ज्ञान के साथ जिस वास्तविक संसार में हम रहते हैं, उसमें कर्म न किया जाये तो ज्ञान निरर्थक है।



स्वामीविवेकानंद ने सर्वधर्म समभाव की घोषणा की और धार्मिक मामलों में हर प्रकार की भी संकीर्णता की निंदा की। 1898 में उन्होंने लिखा 'हमारी मात्रभूमि के लिये विश्व के दो महान धर्मों, हिन्दू एवं मुस्लिम की प्रणालियों का संगम ही एक मात्र आशा है। उन्होंने हिन्दू धर्म के पृथकतावादी सिद्धांत की आलोचना की तथा उसके 'मुझे मत दुओ के आदर्श को उसकी एक बड़ी भूल बताया। साधारण जनता के दुःख एवं कठिनाइयों से परिचित होने के लिये उन्होंने पूरे देश की यात्रा की तथा कहा "जिस एक मात्र ईश्वर पर में विश्वास करता हूँ... वह मेरा ईश्वर सब देशों का दुखी, पीड़ित और 'दरिद्रजन है'। उनके अनुसार, किसी भूखे को धार्मिक उपदेश देना, ईश्वर का अपमान करने जैसा है। उन्होंने देशवासियों से स्वतंत्रता, समानता एवं स्वतंत्र सोच धारण करने की अपील की।


,स्वामी विवेकानंद एक महान मानवतावादी व्यक्ति थे तथा उन्होंने रामकृष्ण मिशन के द्वारा मानवीय सहायता एवं सामाजिक कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य बनाया। मिशन ने सामाजिक एवं धार्मिक सुधार के अनेक कार्य किये। उन्होंने कर्मफल की सर्वोच्चता को प्रतिपादित करते हुए इसे ही सर्वश्रेष्ठ बताया। विवेकानंद ने जीव की सेवा की तुलना शिव की पूजा से की। उनके अनुसार जीवन स्वयं एक धर्म है। कर्म के द्वारा ही मानव का दैवीय अस्तित्व होता है। उन्होंने तत्कालीन तकनीक एवं आधुनिक विज्ञान का उपयोग मानवमात्र के कल्याण हेतु करने की महता प्रतिपादित की। विवेकानंद ने अपने मानवतावादी और कार्य सम्बंधी विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिये देश के विभिन्न भागों में रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखायें स्थापित की। इस मिशन ने लोगों के लिये स्कूल, पुस्तकालय, दयाखाने, अनाथालय इत्यादि की स्थापना की। विजन, विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं यया-बाद, सूखे एवं महामारी इत्यादि में भी लोगों की सहायता के लिये कार्य करता था। मिशन ने अंतर्राष्ट्रीय संगठन का स्वरूप धारण किया। मिशन एक हिन्दू धार्मिक संगठन था किंतु इसने अन्य को भी महान बताया। आर्य समाज के विपरीत, मिशन ने मूर्तिपूजा का समर्थन किया। 

1 इसके अनुसार, मूर्तिपूजा, उपासना का उत्तम एवं सरल तरीका है। मूर्तिपूजा से आध्यात्मवाद का विकास बड़ी सरलता से किया जा सकता है। यह श्रेष्ठ है क्योंकि मूर्तिपूजा से कोई भी मनुष्य बहुत कम समय में ईश्वर की वंदना में निपुण हो सकता है। हिन्दू धर्म या वेदांत सर्वश्रेष्ठ है। इसकी सहायता से हिन्दू सच्चा हिन्दू एवं क्रिश्चियन सच्या क्रिश्चियन बन सकता है।


स्वामी विवेकानंद ने 1893 में शिकागो (अमेरिका) में सम्पन्न विश्व धर्म सम्मेलन में लोगों को यह बताने का प्रयास किया कि वेदांत केवल हिन्दुओं का ही नहीं अपितु सभी मनुष्यों का धर्म है। उन्होंने आध्यात्मवाद एवं भौतिकतावाद के संतुलन पर बल दिया। इस सम्मेलन में उन्होंने कहा कि यदि पश्चिम के भौतिकतावाद एवं पूर्व के आध्यात्मवाद का सम्मिश्रण कर दिया जाये तो यह मानव जाति की भलाई का सर्वोत्तम मार्ग होगा।


स्वामी विवेकानंद ने कभी लोगों को राजनीतिक संदेश नहीं दिया। उन्होंने देश की युवा पीढ़ी से अपील की कि वे भारत की प्राचीन सभ्यता पर गर्व करें तथा भविष्य में भारत की संस्कृति की मानव जाति के कल्याणार्थ समर्पित करें। वे भारत को एक जागृत एवं प्रगतिशील राष्ट्र बनाना चाहते थे वे जातिवाद, छुआछूत एवं विषमता को राष्ट्र के दुर्बल होने का महत्वपूर्ण कारक मानते थे उन्हें भारत की जनता की शक्ति में पूर्ण 1 आस्था थी। उनका विश्वास था कि एक दिन भारत का विकास होगा तथा देश से अशिक्षा एवं गरीबी पूरी तरह समाप्त हो जायेगी।



सोमवार, 22 मई 2023

glory of rajsthan.. maharana kumbha 🔥

 मेवाड़ का राणा (1433-68)। मेवाड़ के सबसे महान शासकों में उसकी गणना की जाती है। उन्होंने मालवा व गुजरात के सुल्तानों की शक्तिशाली सेनाओं को मेवाड़ से दूर रखा। वह महान वास्तु-निर्माता थे । उन्होंने मेवाड़ की रक्षा के लिए स्थापित 84 दुर्गों में से 32 दुर्गा का निर्माण करवाया। इन बाद कुम्भा ने अपना दुर्गों में कुम्भलगढ़ सैनिक दृष्टि से सबसे अधिक उल्लेखनीय है। उसने विजयस्तम्भ का निर्माण कराया। वह केवल  महान शासक तथा योद्धा ही नहीं .थे वरन् प्रतिभाशाली कवि, प्रकांड विद्वान, शासकों द्वारा प्रभुसत्ता व प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी थे


👉कुम्भा की उपाधियां:-
महाराणा, महाराजाधिराज, रायरायान, हिन्दू सुरतान (समकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा प्रदत्त), राणो रासो (विद्वानों का आश्रयदाता). अभिनय भरताचार्य . (संगीत निपुणता के कारण), हाल गुरु (गिरि दुर्गो का स्वामी), छाप गुरु (छापामार युद्ध में पारंगता), महादानी या दानगुरु, प्रजापालक आदि


👉मेवाड़ का राणा (1433-68) सबसे महान शासकों में गणना की जाती है। उसने मालवा , गुजरात के सुल्तानों की शक्तिशाली सेनाओं को मेवाड़ से दूर रखा। वह महान वास्तु निर्माता थे उसने मेवाड़ की रक्षा के लिए स्थापित 84 दुर्गा में से 32 दुगों का निर्माण करवाया। इन दुगों में कुम्भलगढ़ सैनिक दृष्टि से सबसे तीअधिक उल्लेखनीय है।

कुम्भा ने अपना ध्यान विजयों की ओर मोड़ा। उन्होंने(बूंदी), हाड़ावती (कोटा), चाटसू, माल्तुरा, स्तम्भ का निर्माण कराया। वह केवल अमरदादरी, नारदीय नगर (नरवर), नारायण, . गिरीपुर (डूंगरपुर) तथा सारंगपुर पर विजय प्राप्त की और इन क्षेत्रों के शासकों द्वारा प्रभुसत्ता  किये जाने पर कुम्भा ने उनके क्षेत्र लौटा दिए। किन्तु सपादलक्ष (सांभर), डीडवाना, मंडोर, नागौर, रणथंभौर, सिरोही, गागरन, आबू, मांडलगढ़, अजयमेरू (अजमेर) तथा टोडा जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

रविवार, 21 मई 2023

👉Indian national Congress (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना.......)

📋भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना.......

📌कांग्रेस के गठन से पूर्व देश में एक अखिल भारतीय संस्था के गठन की भूमिका तैयार हो चुकी थी। 19वीं शताब्दी के छठे दशक से ही राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय संगठन के निर्माण में प्रयासरत थे। किंतु इस विचार को मूर्त एवं व्यावहारिक रूप देने का श्रेय एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. स्यूम को प्राप्त हुआ। स्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया। इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। 1884 में उन्हीं के प्रयत्नों से एक संस्था 'इंडियन नेशनल यूनियन' की स्थापना हुई। इस यूनियन ने पूना में 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया और इस कार्य का उत्तरदायित्व भी ए.ओ. ह्यूम को सौंपा। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने से उसी वर्ष यह सम्मेलन बंबई में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, यहीं सर्वप्रथम 'अखिल भारतीय कांग्रेस' का गठन किया गया। ए. ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख वास्तुविद (Architects) माने जाते हैं।




📌कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की तथा इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके पश्चात प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न शहरों में इसका वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया जाता था। देश के प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं ने कांग्रेस के प्रारंभिक चरण में इसकी अध्यक्षता की तथा उसे सुयोग्य नेतृत्व प्रदान किया। इनमें प्रमुख हैं-दादा भाई नौरोजी (तीन बार अध्यक्ष), बदरुद्दीन तैय्यबजी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चालू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र दत्त, आनंद मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले । कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं में महादेव गोविंद रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, शिशिर कुमार घोष, मोतीलाल घोष, मदन मोहन मालवीय,



First flag of Indian national Congress✨

गुरुवार, 18 मई 2023

When did the British era begin?

When did the British era begins?


*In the middle of the 18th century, India really stood at a crossroad, with various forces in motion, resulting in a new direction for the country. Some historians place 1740 as the year when the Anglo- French struggle for supremacy in India began. Some consider it to be the year 1757, when the British defeated the Nawab of Bengal at Plassey. While others consider it to be the year 1761, when Ahmad Shah Abdali defeated the Marathas in the Third Battle of Panipat. However, all these chronological demarcations can be somewhat arbitrary because the political transformation, which began around this time, took about 80 years to complete. 


* This was a time in Indian history when various developments were taking place. It was not natural then, as it appears today, that the Mughal Empire was in its final stages, that the Maratha kingdoms had not recovered from the conditions, and that British supremacy could not be avoided. Yet the circumstances under which the British were received. were not clear cut, and some of the obstacles faced by them (the British) were not of a serious nature. It is this contradiction that makes the reasons for the establishment of the British Empire in India a matter of considerable importance.

रविवार, 7 मई 2023

Mugal & rajput (maharana sanga)

Maharana Sanga (1509-1528) -
At the time of Maharana Sanga of Mewar, the ruler of Kabul was Babur (Mohammed Zahiruddin Bawar) who was the son of Umarsheikh Mirza, a descendant of Timur Lang. His mother was from the lineage of Genghis Khan. Babur defeated Sultan Ibrahim Lodi of Delhi in the first battle of Panipat on April 20, 1526 and laid the foundation stone of Mughal rule over Delhi.


After taking over Delhi, Babur also attacked the powerful ruler of that time, Rana Sanga, to establish his authority. He wanted to establish his empire over India. Babur had made his camp at Fatehpur sikri.
Battle of Khatoli (1517): The first war between Delhi's Sultan Ibrahim Lodi and Rana Sanga took place in 1517 AD at a place called Khatoli near Bundi. Ibrahim Lodi was defeated in this war. In this war, one hand of Maharana Sangram Singh (Sanga) was cut off and there was a deep wound in his leg.


Battle of Khanwa On March 17, 1527, a fierce battle took place between the two armies in the field of Khanwa. The plain of Khanwa is in Rupwas tehsil of modern Bharatpur district. In this war almost all the kings of Rajputana were under the flag of Maharana Sanga. The left part of Rana Sanga's army launched a fierce attack on the right part of the Mughal army, which the Mughal army could not withstand. So another group of Babur's army came to help. At the same time, Babur started the artillery. The barrage of cannonballs, which the Rajputs had seen for the first time, struck terror in the Rajat army. Rajput commanders Dalpat, Chandrabhan, Uday Singh, Bhopatrai, Manikchandra Chauhan, Ratan Singh Chundawat, Ramdas Songara, Hasan Khan Mewati, Parmar Gokuldas, Raimal Rathod, Ratan Singh Medatiya, Rawat 1. Jagga, Khetsi, Rawat Bagh Singh, Karamchand etc. Got martyrdom. Rana sanga also broke down on the enemies like death in the battlefield.

प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी

बाबा रामदेव:- सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि राज्यों में 'रामसा पीर', 'रुणीचा रा धणी' व '...