मंगलवार, 27 जून 2023

बारदोली सत्याग्रह आंदोलन :-वल्लभभाई पटेल को आंदोलन की महिलाओं ने सरदार की उपाधि से विभूषित किया। .....{Bardoli Satyagraha Movement :- Political activity in Bardoli taluka of Surat district of Gujarat.....}

बारदोली सत्याग्रह आंदोलन:-

भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर गांधीजी के पदार्पण के पश्चात गुजरात के सूरत जिले के बारदोली तालुके में राजनीतिक गतिविधियों में तेजी आयी। यहां परिस्थितियां उस समय तनावपूर्ण हो गयीं, जब जनवरी 1926 में स्थानीय प्रशासन ने भू-राजस्व की दरों में 30 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा की। यहां के कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने इस वृद्धि का तीव्र विरोध किया। परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने समस्या के समाधान हेतु 'बारदोली जांच आयोग का गठन किया। आयोग ने संस्तुति दी कि भू-राजस्व की दरों में की गयी वृद्धि अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है। फरवरी 1926 में, वल्लभभाई पटेल को आंदोलन की महिलाओं ने सरदार की उपाधि से विभूषित किया।



सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने बढ़ी हुई दरों पर भू-राजस्व अदा करने से इंकार कर दिया तथा सरकार के सम्मुख यह मांग रखी कि जब तक सरकार समस्या के समाधान हेतु किसी स्वतंत्र आयोग का गठन नहीं करती या प्रस्तावित लगान वृद्धिवापस नहीं लेती तब तक वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे। आंदोलन को संगठित करने के लिये सरदार पटेल ने पूरे तालुके में 13 छावनियों की स्थापना की। आंदोलनकारियों के समर्थन में जनमत का निर्माण करने के लिये बारदोली सत्याग्रह पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया। आंदोलन के तरीकों का पालन सुनिश्चित करने के लिये एक 'बौद्धिक संगठन' भी स्थापित किया गया। जिन लोगों ने आंदोलन का विरोध किया, उनका सामाजिक बहिष्कार किया गया। आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु भी अनेक कदम उठाये गये। के. एम. मुंशी तथा लालजी नारंजी ने आंदोलन के समर्थन में बंबई विधान परिषद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।



अगस्त 1928 तक पूरे क्षेत्र में आंदोलन पूर्णरूप से सक्रिय हो चुका था। आंदोलन के समर्थन में बंबई में रेलवे हड़ताल का आयोजन किया गया। पटेल की गिरफ्तारी की संभावना को देखते हुए 2 अगस्त 1928 को गांधीजी भी बारदोली पहुंच गये। सरकार अब आंदोलन को शांतिपूर्ण एवं सम्मानजनक ढंग से समाप्त किये जाने का प्रयास करने लगी। सरकार ने एक 'जांच समिति' गठित करना स्वीकार कर लिया। तदुपरांत गठित ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल समिति ने भू-राजस्व में बढ़ोत्तरी को गलत बताया और बढ़ोत्तरी 30 प्रतिशत से घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दी गयी। इस प्रकार बारदोली सत्याग्रह की सफल ऐतिहासिक परिणति हुई।

मंगलवार, 20 जून 2023

ताशकंद में शांति समझौता और शास्त्रीजी की रहस्यपूर्ण मृत्यु(Tashkent Agreement and the mysterious death of a great Prime Minister Lal Bahadur Shastri)


ताशकंद में शांति समझौता

ताशकंद (उज्बेकिस्तान की राजधानी, जो तत्कालीन सोवियत संघ का एक गणराज्य था) में जनवरी 1966 में एक दक्षिण एशिया शांति सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे सोवियत राष्ट्रपति अलेक्सी कोसिगिन द्वारा प्रायोजित किया गया। यह कोसिगिन की मध्यस्थता से संभव हो सका था कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री मिले और अपने देशों के बीच सामान्य एवं शांतिपूर्ण संबंधों को पुनः स्थापित करने तथा अपने लोगों के बीच समझ और मैत्रीपूर्ण संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए 10 जनवरी, 1966 को ताशकंद घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए।

ताशकंद घोषणा का अर्थ था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बनाए रखने के लिए एक रूपरेखा बनाना। यह विश्वास किया गया कि दोनों पक्ष स्वयं किसी समझौते पर नहीं पहुंच सकते और इसके लिए सोवियत नेताओं द्वारा तैयार मसौदे पर उन्हें हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया। हालांकि, इसे भारत में पूर्ण अनुमोदन नहीं मिला। आलोचकों ने महसूस किया कि समझोता होना चाहिए लेकिन इसमें कोई युद्ध नहीं' समझौता नहीं किया गया और न ही ऐसा कोई प्रावधान था कि पाकिस्तानको कश्मीर में गुरिल्ला आक्रमण को छोड़ देना चाहिए। पाकिस्तान में, समझौते पर बेहद तीखी नाराजगी जाहिर की गई। इसके विरोध में वहां दंगे एवं प्रदर्शन हुए। जुल्फिकार भुट्टो ने अयूब खान एवं इस समझौते से दूरी बना ली, और अंत में इससे अलग होकर अपना खुद का राजनीतिक दल बना लिया।

पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा सितम्बर युद्ध के बाद शांति स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाते हुए ताशकंद समझौता किया गया जिसके प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं-

 1. भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने-अपने झगड़ों कोशांतिपूर्ण ढंग से तय करेंगे।

2. दोनों देश 25 फरवरी, 1966 तक अपनी सेनाएं 5 अगस्त, 1965 की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे। 

3. इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएं तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएं जारी रहेंगी।

4. भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेपन करने पर आधारित होंगे।

5. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध फिर से स्थापित कर दिए जाएंगे।

6. एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा।

7. आर्थिक एवं व्यापारिक संबंधों तथा संचार संबंधों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा।

8. ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाएंगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो। 

9. शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर भी विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में जब्त की गई एक-दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।

इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएं उस सीमा रेखा पर वापस लौट गई, जहां पर ये युद्ध के पूर्व में तैनात थीं। परंतु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन संबंधों पर गहरा प्रभाव पहा ।


शास्त्रीजी की रहस्यपूर्ण मृत्यु


11 जनवरी, 1966 की सुबह, ताशकंद घोषणा के हस्ताक्षर के बाद वाली सुबह, लाल बहादुर शास्त्री हृदयाघात से प्राणहीन हो गए। उनकी मृत्यु पर विवाद उत्पन्न हो गया और साथ ही अफवाह फैली कि उन्हें जहर देकर मारा गया है। इस मामले में सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (अमेरिका की सीआईए) का हाथ होने का भी संदेह था, जैसाकि पश्चिम भारत की आणविक महत्वाकांक्षाओं को लेकर शंका में था और दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन में मुश्किल हो रही थी। यह विवाद अभी तक खत्म नहीं हुआ है।
पहली जांच राजनारायण ने करवाई थी, जो बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गई। और भारतीय संसद लाइब्रेरी में उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वर्ष 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से जवाब दिया गया कि शास्त्री जी के निजी डॉक्टर आर. एन. चुघ और रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जांच तो की थी परंतु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वर्ष 2009 में 'साउथ एशिया पर सीआईए की नजर' नामक पुस्तक के लेखक अनुज घर ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गई जानकारी पर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से यह कहा गया कि, "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज सार्वजनिक करने से हमारे देश के अंतरराष्ट्रीय संबंध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषाधिकारों को भी ठेस पहुंच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिसमें इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता" ।

सोमवार, 19 जून 2023

नील आंदोलन - किसानो की अंग्रजो के अत्याचारों के विरुद्ध की लड़ाई और विजयIndigo Movement - Victory of the farmers against the British]

नील आंदोलन (1859-60):->

अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों का पहला जुझारू एवं संगठित विद्रोह नील विद्रोह था। 1859-60 ई. में बंगाल में हुए इस विद्रोह ने प्रतिरोध की एक मिसाल ही स्थापित कर दी। यूरोपीय बाजारों की मांग की पूर्ति के लिये नील उत्पादकों ने किसानों को नील की अलाभकर खेती के लिये बाध्य किया। जिस उपजाऊ जमीन पर चावल की अच्छी खेती हो सकती थी, उस पर किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाकर झूठे करार द्वारा नील की खेती करवायी जाती थी। करार के वक्त मामूली सी रकम अग्रिम के रूप में दी जाती थी और धोखा देकर उसकी कीमत बाजार भाव से कम आंकी जाती थी। और, यदि किसान अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाने का प्रयास भी करता था तो उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता था।

कालांतर में सत्ता के संरक्षण में पल रहे नील उत्पादकों ने तो करार लिखवाना भी छोड़ दिया और लठैतों को पालकर उनके माध्यम से बलात नील की खेती शुरू कर दी। वे किसानों का अपहरण, अवैध बेदखली, लाठियों से पीटना, उनकी महिलाओं एवं बच्चों को पीटना, उनके पशुओं को जब्त कर लेना तथा उनके घरों एवं फसलों को जलाने जैसे क्रूर हथकंडे अपनाने लगे।

नील आंदोलन की शुरुआत 1859 के मध्य में बड़े नाटकीय ढंग से हुई। एक सरकारी आदेश को समझने में भूलकर कलारोवा के डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया, जिससे किसान अपनी इच्छानुसार भूमि पर उत्पादन कर सकें। बस, शीघ्र ही किसानों ने नील उत्पादन के खिलाफ अर्जियां देनी शुरू कर दीं। पर, जब क्रियान्वयन नहीं हुआ तो दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नादिया जिले के गोविंदपुर गांव के किसानों ने विद्रोह कर दिया। जब सरकार ने बलपूर्वक युक्तियां अपनाने का प्रयास किया तो किसान भी हिंसा पर उतर आये। इस घटना से प्रेरित होकर आसपास के क्षेत्रों के किसानों ने भी उत्पादकों से अग्रिम लेने, करार करने तथा नील की खेती करने से इंकार कर दिया। बाद में किसानों ने जमींदारों के अधिकारों को चुनौती देते हुए उन्हें लगान अदा करना भी बंद कर दिया। यह स्थिति पैदा होने के पश्चात नीत उत्पादकों ने किसानों के खिलाफ मुकदमे दायर करना शुरू कर दिये तथा मुकदमे लड़ने के लिये धन एकत्र करना प्रारंभ कर, दिया। बदले में किसानों ने भी नील उत्पादकों की सेवा में लगे लोगों का सामाजिक बहिष्कार प्रारंभ कर दिया। इससे किसान शक्तिशाली होते गये तथा नील उत्पादकअकेले पड़ते गये। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

 उन्होंने किसानों के समर्थन में समाचार-पत्रों में लेख लिखे, जनसभाओं का आयोजन किया तथा उनकी मांगों के संबंध में सरकार को ज्ञापन सौंपे। हरीशचंद्र मुखर्जी के पत्र हिन्दू पैट्रियट ने किसानों का पूर्ण समर्थन किया। दीनबंधु मित्र से नील दर्पण द्वारा गरीब किसानों की दयनीय स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया।

स्थिति को देखते हुए सरकार ने नील उत्पादन की समस्याओं पर सुझाव देने के लिये नील आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें किसानों को यह आश्वासन दिया गया कि उन्हें नील उत्पादन के लिये विवश नहीं किया जायेगा तथा सभी संबंधित विवादों को वैधानिक तरीकों से हल किया जायेगा। कोई चारा न देखकर नील उत्पादकों ने बंगाल से अपने कारखाने बंद करने प्रारम्भ कर दिये तथा 1860 तक यह विवाद समाप्त हो गया।

मंगलवार, 13 जून 2023

✏️आँध्रप्रदेश का विभाजन और तेलंगाना का गठन[Division of Andhra Pradesh and formation of Telangana]:->

📖तेलंगाना मुद्दा:->

📋मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में तेलंगाना के पृथक राज्य बनने का आंदोलन ती हो गया। वर्ष 2004 के चुनावों से पूर्व, कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के साथ गठबंधन किया और वचन दिया कि यदि वह सत्ता में आई तो वह आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना को एक पृथक राज्य बनाएगी। 2009 के चुनावों में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने बेहद अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन इस जीत को दिलाने वाले वाई.एस.आर. रेही, जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे ने राज्य के विभाजन का पूर्ण विरोध किया इन परिस्थितियों में केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस सरकार तेलंगाना राज्य बनाने के अपने वादे से पीछे हट गई। इसके साथ ही सरकार ने अपने एक अन्य वादे की भी उपेक्षा की कि कुछ बड़े राज्यों को विभाजित करने के लिए एक नई राज्य पुनर्गठन समिति का निर्माण किया जाएगा। ऐसा इसलिए किया गया कि लेफ्ट, जिनके समर्थन के बिना सरकार अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाती; ने इस विचार का पुरजोर विरोध किया।
📋वाई.एस.आर. रेड्डी एक हवाई दुर्घटना में मारे गए और तेलंगाना के लिए विरोध-प्रदर्शन को एक नया जीवन प्राप्त हुआ तथा इसकी कमान के. चंद्रशेखर राव (के.सी.आर.) ने संभाली। नवम्बर 2009 में, तेलंगाना को अलग राज्य बनाने को लेकर के. चंद्रशेखर राव आमरण अनशन पर बैठ गए। इसके समर्थन के लिए के.सी.आर. के हजारों समर्थक इकडे हो गए, जिस कारण हैदराबाद का जन-जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया। केंद्र सरकार ने दिसंबर 2009 में घोषणा की कि राज्य निर्माण की प्रक्रिया को शुरू किया जाएगा। इस निर्णय ने तटीय आंध्र प्रदेश के कांग्रेस सांसदों में अत्यधिक रोष उत्पन्न किया, लेकिन अंत में इसे स्वीकार कर लिया गया। 

📋पृथक राज्य के मामले पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी. एन. कृष्णा की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने दिसंबर 2010 में अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन टी. आर. एस. ने इसे अस्वीकृत कर दिया। काफी बातचीत के बाद, संसद ने फरवरी 2014 में तेलंगाना विधेयक पारित कर दिया। अधिनियम के अनुसार, आंध्र प्रदेश का नया तेलंगाना राज्य बनाने के लिए औपचारिक रूप से विभाजन किया गया। दोनों राज्य हैदराबाद को दस वर्ष तक राजधानी के रूप में साझा करेंगे, जिसके पश्चात् आंध्र प्रदेश की पृथक् राजधानी होगी, और केंद्र सरकार ने इसके निर्माण के लिए आंध्र प्रदेश (सीमांध्र भी कहा गया) को फंड प्रदान किया। [ केंद्र में नई सरकार के सत्तासीन होने के बाद, जून 2014 में वास्तविक रूप से तेलंगाना अस्तित्व में आया और के.सी. आर. वहां के प्रथम मुख्यमंत्री बने ।]

📋संयोगवश, मई 2011 राज्य सरकार के स्तर पर एक ऐतिहासिक बदलाव हुआ। पश्चिम बंगाल, जहां वाम पक्ष (लेफ्ट फ्रंट) 1977 से निरंतर शासन कर रहा था; ने निष्ठा परिवर्तन का निर्णय लिया और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को सत्ता सौंप दी। ममता बनर्जी, जो एक समय कांग्रेस में थीं और बाद में पार्टी छोड़कर टीएमसी का गठन किया, राज्य की नई मुख्यमंत्री बनीं।

शनिवार, 10 जून 2023

👉पंजाब अशांति और ऑपरेशन ब्लू स्टार

पंजाब अशांति और ऑपरेशन ब्लू स्टार:-

👉अलगाववादी ताकतों के सिर उठाने के साथ पंजाब में राजनीतिक संकट अत्यधिक व्यापक हो गया था। वस्तुतः इस संकट में कई परतें थीं। पंजाब में अधिक स्वायतत्ता के लिए तीखी मांग हो रही थी। अधिकतर सिख अपने पृथक् धर्म के संदर्भ में स्वयं को देखने लगे थे कि एक सिख राजनीतिक दल (अकाली) बिना केंद्रीय हस्तक्षेप के मुक्त रूप से राज्य पर शासन नहीं कर सकते। उन्होंने लम्बे समय तक स्वयं के एक राज्य के लिए प्रतीक्षा की, लेकिन चंडीगढ़ अभी भी हरियाणा के साथ साझा करना पड़ रहा था। नदी जल के बंटवारे को लेकर भी समस्या थी। 1973 में, अकालियों ने आनंदपुर प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें एक स्तर पर अधिक स्वायतत्ता की मांग की गई और दूसरे स्तर पर 'सिख राष्ट्र' शब्द का प्रयोग किया गया, जिसने भारतीय संघ से अलग होने का अर्थ प्रस्तुत किया।

👉अकालियों ने निरंकारी सिखों का विरोध किया जिन्हें विरोधी मानते थे। इस संदर्भ में जरनैल सिंह भिंडरेवाला का उदय हुआ। एक पुजारी या संत तथा दमदमी टकसाल के मुखिया के तौर पर, उसने जोरदार तरीके से निरंकारियों के विरुद्ध योता। उसने यह भी कहा कि स्वतंत्र भारत में वे दास की तरह हैं और हिंदुओं तथा 'आधुनिक सिख' का उपहास किया। ऐसा कहा गया कि अकालियों के विरुद्ध भिंडरेवाला को स्वयं कांग्रेस ने खड़ा किया। यदि ऐसा हुआ था, तो वह बेकाबू दानव बन गया था, और जल्द ही उसने अपनी अलग छवि बना ली थी। उसके बड़ी संख्या में अनुगामी भी बन गए थे।

✨1980 में, अकालियों को एक बड़ा धक्का लगा जब वे सत्ता से बाहर हो गए और राज्य में कांग्रेस सत्ता में आ गई।

✨भारत से स्वतंत्र एक मुक्त राज्य बनाने के आवेग को मुख्यतः इंग्लैंड, अमेरिका और कनाडा में रह रहे सिखों ने हवा दी। जून 1980 में, अमृतसर में स्वर्ण मंदिर (गोल्डन टेम्पल) में विद्यार्थियों के एक समूह की बैठक हुई जिसमें उन्होंने स्वतंत्र गणराज्य खालिस्तान के निर्माण की घोषणा की। इसके अध्यक्ष लंदन से जगजीत सिंह चौहान थे।


✨मिडरेवाला द्वारा शक्ति हासिल करने के साथ-साथ पंजाब की स्थिति बद से होती जा रही थी और कई प्रसिद्ध व्यक्तियों की हत्या में उसके हाथ होने की शंका थी जिसमें निरंकारी नेता भी शामिल थे। सरकार उसे दण्डित करने में निष्प्रभावी हो गई थी।

✨भिंडरेवाला पर नकेल कसने के प्रयास के विरुद्ध, अकाली अत्यधिक उग्र हो गए दे। उनके विधायकों ने 1983 के गणतंत्र दिवस के मौके पर राज्य विधानसभा से सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया। इसने स्पष्ट किया कि भारत के संविधान के प्रति उनकी प्रतिवद्धता दृढ़ नहीं थी। इस बीच, भिंडरेवाला अपने भाषणों में हिंदुओं के विरुद्ध जहर उगलने लगा था और हिंदुओं को राज्य से बाहर करने के लिए सिखों को हिंसा करने के लिए उकसा रहा था। सिखों के उदय / उद्गम के प्रकाश में हिंदुओं और सिखों के बीच संघर्ष होना असंभव था, लेकिन अब यह होने लगा था। केंद्र सरकार ने शांति बनाए रखने के लिए भिंडरेवाला को तैयार करने के प्रयास हेतु नरसिम्हा राव के नेतृत्व में एक दल भेजा लेकिन वार्ता असफल हो गई और पंजाब में कानून-व्यवस्था निरंतर बदतर होती चली गई।

✨खालिस्तानी आतंकवादियों ने, ऐसा कहा गया कि उन्हें पाकिस्तान प्रोत्साहित कर रहा था, धीरे-धीरे पंजाब में घुसना शुरू कर दिया था और प्रमुख हिंदुओं और सिख पदाधिकारियों की हत्याएं की जाने लगीं थीं। अक्टूबर, 1983 में, एक बस को रोका गया और उसमें बैठे हिंदुओं को गोली मार दी गई। केंद्र ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। भिंडरेवाला बिना किसी रुकावट के अकाल तख्त, स्वर्ण मंदिर के निकट सिखों की कालिक सत्ता की सीट जो आध्यात्मिक अधिकारिता की सीट थी, तक पहुंच गया। 1984 के शुरू में, भिंडरेवाला और उसके सहयोगियों ने स्वर्ण मंदिर परिसर की किलेबंदी करनी शुरू कर दी और इसमें शस्त्र एवं गोला-बारूद और साथ ही खाने की वस्तुओं को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। यह सब शुवेग सिंह, भारतीय सेना में मेजर जनरल था और भारतीय सेना का बीर सिपाही रहा था जिसे बाद में बर्खास्त कर दिया
यह सब शुवेग सिंह, भारतीय सेना में मेजर जनरल था और भारतीय सेना का वीर सिपाही रहा था जिसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया की देख-रेख में हो रहा था।

👉स्पष्ट हो चुका था कि कठोर कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। इंदिरा गांधी ने सेना प्रमुख ए.एस. वैद्य की अनुशंसा पर ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने की अनुमति दे दी। 2 जून, 1984 की रात से 5 जून तक पंजाब राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया, संचार तथा परिवहन के सभी सायनों को निलम्बित कर दिया गया, और विद्युत आपूर्ति बंद कर दी गई। मीडिया को सख्ती से प्रतिबंधित कर दिया गया। 5 जून की रात को सेना ने मेजर जनरल के.एस. बरार की कमांड और जनरल के. सुंदरी के निर्देश के तहतु हरमंदिर साहिब पर सैन्य कार्यवाही की उग्रवादियों के पास अत्याधुनिक हथियार थे और उन्होंने काफी समय तक गोलीबारी की। अंत में 7 जून की सुबह तक सेना को हरमंदिर साहिब पर पूर्ण नियंत्रण से पूर्व अकाल तख्त के विरुद्ध टैंकों का प्रयोग करना पड़ा। मिडरेवाला और शुवेग सिंह मृत पाए गए। जबकि कई उग्रवादी मारे जा चुके थे, कई सैनिक और नागरिक भी इस घटना में मारे गए थे। परिणामः इस ऑपरेशन से विश्व के सभी सिख परेशान एवं व्यथित हो गए। कई सिखों ने भारतीय सेना छोड़ दी। यहां तक कि सिख सैनिकों के विद्रोह की भी बात सामने आई। लेकिन इससे राज्य में आतंकवाद का अंत हुआ और फिलहाल स्वर्ग

✨मंदिर (गोल्डन टेम्पल) परिसर से हथियार एवं गोला-बारूद हटाए जा सके थे। लेकिन प्रधानमंत्री की हत्या को भी ऑपरेशन ब्लू स्टार के परिणाम के रूप में देखा गया 31 अक्टूबर, 1984 की सुबह, जब इंदिरा गांधी अपने घर से कार्यालय जा रही थीं, तो उनके अंगरक्षकों-बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने उन पर गोली चला दी। उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) से जाया गया, लेकिन ये जीवित न बच सकीं। यद्यपि, सामान्य तौर पर पता चल चुका था कि इंदिरा गांधी मर चुकी थी, लेकिन ऑल इण्डिया रेडियो और दूरदर्शन ने इसकी आधिकारिक शाम को की

✨इंदिरा गांधी का युग समाप्त हो चुका था। उनके पुत्र राजीव गांधी को उसी शाम राष्ट्रपति जैल सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई, जैसाकि कांग्रेस नेताओं ने सर्वसम्मति से निर्णय किया था कि उन्हें यह पद संभालना चाहिए।

मंगलवार, 6 जून 2023

🔥भारत और चीन युद्ध{India and china war}

👉भारत और चीन :-

स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत ने सबसे पहले चीन की च्यांगकाई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सरकार के साथ अपने राजनयिक सम्बंध स्थापित किये। 1 अक्टूबर, 1949 को चीन में स्थापित माओत्से तुंग की साम्यवादी सरकार को भारत ने दिसंबर 1949 में अपनी मान्यता दे दी तथा उसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने हेतु भरपूर समर्थन दिया। इस प्रकार आजादी के बाद से ही भारत ने चीन के प्रति मित्रतापूर्वक संबंधों का निर्वहन किया, किंतु इसके परिणाम भारत के लिए घोर निराशाजनक साबित हुए।

✨भारत-चीन के बीच उत्पन्न तनावों को समझने के लिए तिब्बत में चीन की गतिविधियों, सीमाविवादों तथा 1962 के चीनी आक्रमण से जुड़े विभिन्न पहलुओं को जानना आवश्यक है।
👉• तिब्बत विवादः अक्टूबर 1950 में चीन की जनमुक्ति सेना ने तिब्बत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। तिब्बत, भारत एवं चीन के मध्य एक 'बफर राज्य के रूप में स्थापित था। तिब्बत क्षेत्र में 2000 मील को सीमा पर ब्रिटिश शासनकाल से ही भारत को नियंत्रण का अधिकार प्राप्त था। चीन की इस आक्रामक कार्यवाही से विचलित होने के बावजूद भारत ने उसके साथ मित्रतापूर्ण संबंध कायम रखने का निर्णय किया और 1954 में चीन के साथ साँध करके तिब्बत पर उसके अधिकार को मान्यता दे दी। इस संधि में भारत एवं चीन के आपसी संबंधों के निर्देशक के रूप में पंचशील सिद्धांतों को शामिल किया गया। उक्त संधि के तहत भारत ने चीन को दिल्ली, कलकत्ता और कलिंगयोंग में अपने वाणिज्यिक अभिकरण स्थापित करने की सुविधा प्रदान की, जबकि चीन ने भारत को तिब्बत में अपना व्यापार केंद्र स्थापित करने की छूट दी।

चीन द्वारा सुनियोजित ढंग से तिब्बत की स्वायत्तता कम करते जाने के प्रयासों के फलस्वरूप मार्च 1959 में तिब्बत में एक जनविद्रोह भड़क उठा। चीन ने इस विद्रोह को दमनपूर्ण उपायों द्वारा कुबल दिया, जिसका भारत में जनता के स्तर पर गंभीर विरोध किया गया। भारत द्वारा धर्मगुरु दलाईलामा तथा उनके अनुयायियों को राजनैतिक शरण प्रदान की गई, किंतु भारत सरकार ने तिब्बत सरकार को कोई मान्यता नहीं दी। फिर भी चीन द्वारा सुरूप ये भारत को तिब्बत में विद्रोह भड़काने काजिम्मेदार ठहराया गया और 1959 में लोंगण तथा लद्दाख क्षेत्र में 12000 वर्ग मी भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया गया। सितंबर 1959 में भारत-चीन सम्बंधों पर पहला श्वेतपत्र भारतीय संसद में पेश किया गया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के सामने  किया गया कि 1954 के समझौते के शैशवकाल में ही भारत और चीन की सेनाएं सीमाक्षेत्र में तनावपूर्ण वातावरण में तैनात थीं दोनों देशों के मध्य सीमा समस्या पर 1 अनेक विरोधपत्रों, स्मरणपत्रों तथा झापनों का आदान-प्रदान भी हुआ, जिनमें दोनों देशों द्वारा अपने-अपने दावे पेश किये गये थे।

• भारत-चीन सीमा पर तनावः चीन ने भारत के 40000 वर्गमील क्षेत्र पर अपना दावा पेश किया और भारतीय सीमा का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दिया। चीन का दावा था कि भारतीय सरकार और चीन की केंद्रीय सरकार के मध्य ऐतिहासिक तौर पर कोई संधि नहीं हुई थी। उसने पहले से स्थित मैकमोहन रेखा को अवैध किया, क्योंकि यह चीन के तिब्बती क्षेत्र पर ब्रिटिश आक्रामक नीतियों का परिणाम थी।

दूसरी ओर, भारत का मानना था कि दोनों देशों के बीच स्थित ऐतिहासिक सीमाएं उच्चतम जलप्रवाह के भौगोलिक सिद्धांत पर आधारित थीं और अधिकांश क्षेत्र में दोनों देशों की तत्कालीन सरकारों द्वारा सम्पन्न विशिष्ट समझीतों में उन सीमाओं को मान्यता दी गयी थी। 1959-62 के मध्य चीन द्वारा निरंतर भारतीय सीमाओं का उल्लंघन करने के बावजूद भारत ने शांतिपूर्ण उपायों द्वारा ही सीमा विवाद को सु के प्रयास किये। दोनों देशों के अधिकारियों द्वारा कई बार आपसी वार्ताएं की गई। अप्रैल 1960 में चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने भी भारत यात्रा की। किंतु सम का कोई समाधान नहीं खोजा जा सका।

✨• भारत पर चीनी आक्रमण (1962): 8 सितंबर, 1962 को चीनी सेनाओं ने सोचे-विचारे ढंग से उत्तरी-पूर्वी सीमांत एजेंसी (नेफा, आधुनिक अरुणाचल प्रदेश) क्षेत्र में मैकमोहन रेखा का अतिक्रमण कर लिया। 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने ख से नेफा तक की समूची सीमा पर पूरी तरह आक्रमण कर दिया। चीन के इस गंभीर और जबरदस्त आक्रमण के समक्ष भारतीय सेनाओं को हार का सामना करना पड़ा और एक बड़े भारतीय भू-भाग पर चीन का आधिपत्य स्थापित हो गया। युद्ध के दौरान भारत को पश्चिमी शक्तियों तथा सोवियत संघ दोनों से सहायता प्राप्त हुई। 21 न 1962 को चीन द्वारा नाटकीय ढंग से समूचे सीमा क्षेत्र में युद्धविराम की एकतरफ घोषणा कर दी गयी और वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किमी. पीछे हटने का ला किया गया। लेकिन इसके बावजूद भी लद्दाख का एक बड़ा भाग तथा और दक्षिणी चीन को जोड़ने वाले सामरिक महत्व के क्षेत्र पर चीन का कब्जा जमाए चीन द्वारा भारत को यह चेतावनी भी दी गयी कि यदि भारत पूर्वी क्षेत्र की वास्ति नियंत्रण रेखा से आगे बढ़ा अथवा मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र की वास्तविक निर्वाण से पीछे हटने को राजी नहीं होता है, तो वह भारत पर पुनः आक्रमण करेगा।
इसी मध्य 1962 में 6 एफ्रो एशियाई देशों- इंडोनेशिया म्यांमार, संयुक्त अरब गणराज्य, पाना, श्रीलंका द्वारा 'कोलंबो प्रस्ताव' के माध्यम से दोनों देशों के मध्य समझौता कराने का प्रयास किया गया। इस प्रस्ताव के अनुसार, चीन को पारंपरिक सीमा रेखा से 20 किमी. पीछे हटाने, पूर्वी क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा को दोनों देशों द्वारा युद्धविराम रेखा के रूप में स्वीकार करने तथा मध्यक्षेत्र में यथास्थिति कायम रखे जाने का प्रावधान था।

भारत ने कोलंबो प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान कर दी, किंतु चीन ने मैकमोहन रेखा पर भारतीय सेना की तैनाती और असैनिक घोषित क्षेत्र में नागरिक चौकी स्थापित करने के अधिकार को चुनौती देते हुए उक्त प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। इस प्रकार भारत-चीन के मध्य सम्बंधों में गतिरोध बना रहा।

रविवार, 4 जून 2023

भारत-पाकिस्तान-संबंध..(reason of battle and undevelopment)

भारत-पाकिस्तान:-
पाकिस्तान और भारत के बीच संबंध सदैव ही कटु रहे हैं और इसका कारण पाकिस्तान और भारत के विभाजन के तरीके में निहित है। 1947 के विभाजन से दोनों ही देशों के सम्मुख कुछ नई समस्याएं खड़ी हो गई। दोनों देश अस्त्रों की होड़ में लग गए, जिसके परिणामस्वरूप भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ। इस कारण दोनों देशों के विकास में बाधा खड़ी हुई। आरंभ से ही पाकिस्तान सभी क्षेत्रों में भारत की बराबरी करने की कोशिश कर रहा था। उसकी दूसरी समस्या अपनी अलग पहचान बनाने की भी थी। पाकिस्तान की प्रतिरक्षा की दृष्टि में भारत का आकार, जनसंख्या, संसाधन और कार्यक्षमताएं गंभीर चुनौती बने हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने में विशेष रूप से संलग्न रहा। इस उद्देश्य से उसने विश्व के अनेक देशों से सैनिक सहायता मांगी। पाकिस्तान पश्चिमी गुट में शामिल हो गया और इस प्रकार वह भी शीत युद्ध का भागीदार बन गया। भारत ने भी प्रतिरक्षा के लिए अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया। हालांकि, भारत ने सदैव एक साथ बैठकर विभिन्न मुद्दों के समाधान निकालने की वकालत की।

कश्मीर मामला
कश्मीर, भारत और पाकिस्तान के बीच एक अहम् समस्या बना रहा। भारत ने 26 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर को अपना हिस्सा बना लिया, लेकिन पाकिस्तान इसे मानने के लिए तैयार नहीं था और उसने जनजातीय कबीलों की आड़ में छुपकर आक्रमण किया। भारत ने पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को कश्मीर से खदेड़ दिया। इसमें शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में जन-समुदाय ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दुर्भाग्यपूर्ण है, कि भारत ने इस काम को पूरा किए बगैर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में शिकायत दर्ज कर दी। यह मामला जनवरी, 1948 में दर्ज किया गया, फलतः 1 जनवरी, 1949 को युद्ध-विराम की घोषणा की गई। 1947 में, भारत ने अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण के अंतर्गत कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव रखा लेकिन 1955 में कुछ बदली हुई परिस्थितियों के कारण, इसे वापस ले लिया गया। हालांकि, कश्मीर के मामले पर संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कूटनीतिक लड़ाई चलती रही, लेकिन युद्ध की स्थिति 1964 तक नहीं आई। लेकिन कश्मीर की समस्या का कोई समाधान नहीं निकला और दोनों देशों के संबंधों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वस्तुतः अब दोनों देश, अपनी सीमा की रक्षा करने को तत्पर हो गए और इनमें से कोई भी बलपूर्वक इसे बदलने की इच्छा व्यक्त नहीं करता।

सिंधु नदी जल विवादः 
विभाजन ने अनेक समस्याएं उत्पन्न कीं, जिनमें से एक है-सिंधु नदी जल बंटवारा। दोनों देश सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जत का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहते थे। भारत और पाकिस्तान खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होना चाहते थे, अतः वे सिंधु के जल का अधिक से अधिक उपयोग करना चाहते थे। विभाजन के बाद, सिंधु नदी से सिंचित होने वाले 280 लाख एकड़ क्षेत्र में 50 लाख एकड़ भूमि भारत के पास रह गई। अधिकांश पश्चिमी नदियां समुद्र में मिल जाती थीं। जबकि पाकिस्तानी नहरें पूर्वी नदियों पर आश्रित थीं। इन नदियों का पानी पूर्वी पंजाब से होकर पाकिस्तान में जाता था। भारत का कृषि विकास भी रावी. व्यास और सतलज जैसी पूर्वी नदियों के जल पर आश्रित था। पाकिस्तान की नहरों का वह भाग, जो नदी से जुड़ा था, भारतीय भू-भाग में पड़ता था। तनाव का कारण यही था।
पाकिस्तान में बाढ़ आने या अकाल पड़ने पर पाकिस्तानी शासक भारत को दोषी ठहराते थे। उन्होंने पानी की समस्या के लिए भारत को दोषी ठहराया और न्याय संगत बंटवारे की मांग की। दूसरी ओर, भारत इस समस्या को सुलझाने के लिए तत्पर था। विश्व बैंक की देखरेख में 17 अप्रैल, 1759 को वाशिंगटन में नहर के जल के बंटवारे से संबंधित अंतरिम समझौता हुआ। इसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापक समझौतों का एक सिलसिला चला। 19 सितम्बर, 1969 को करांची में नहर जलसंधि पर हस्ताक्षर किए गए।

शुक्रवार, 2 जून 2023

गांधीजी की भारत वापसी ,चम्पारण सत्याग्रह (1917)

गांधीजी की भारत वापसी:--

गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भलीभांति परिचित हो चुका था। गांधीजी ने निर्णय किया कि वे अगले एक वर्ष तक समूचे देश का भ्रमण करेंगे तथा जनसामान्य की यथास्थिति का स्वयं अवलोकन करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक मुद्दे पर कोई सार्वजनिक कदम नहीं उठायेंगे। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। नरमपंथी राजनीति से उनकी आस्था पहले ही खत्म हो चुकी थी तथा वे होमरूल आंदोलन की इस रणनीति के भी खिलाफ थे कि अंग्रेजों पर कोई भी मुसीबत उनके लिये एक अवसर है। यद्यपि होमरूल आंदोलन इस समय काफी लोकप्रिय था किन्तु इसके सिद्धांत गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। उनका मानना था कि ऐसे समय में जबकि ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में उलझा हुआ है, होमरूल आंदोलन को जारी रखना अनुचित है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने सर्वोत्तम मार्ग है--अहिंसक सत्याग्रह। 

उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग को नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते। तीन संघर्थी- चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दोनों रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने से पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों से सम्बद्ध थे। इनमें अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा धम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।
चम्पारण सत्याग्रह (1917) -
 प्रथम सविनय अवज्ञा शरण का मामला काफी पुराना था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान निकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3-20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था तिनकारियाद्ध के नाम से जानी जाती थी। 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंग का विकास हो गया, जिसने नील को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने को विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान अन्य करों की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।

फलतः गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, बृज किशोर, मजहर उल-हक, महादेव देसाई, नरहरि जे.बी. कृपलानी के सहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी के चम्पारण पहुंचते ही अधिकारियों ने उन्हें तुरन्त चम्पारण से चले जाने का आदेश दिया। किन्तु गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया तथा किसी भी प्रकार के दंड करें भुगतने का फैसला किया। सरकार के इस अनुचित आदेश के रुद्ध प्रतिरोध या सत्याग्रह का यह मार्ग चुनना विरोध का सर्वोत्तम तरीका था। गांधीजी की दृढ़ता के सम्मुख सरकार विवश हो गयी, अतः उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चम्पारण के गांवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया। इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।

 गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये। बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को सीटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम बुद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया। चम्पारन सत्याग्रह से सम्बद्ध अन्य लोकप्रिय नेताओं में अनुग्रह नारायण सिन्हा, रामनवमी प्रसाद एवं शंभुशरण वर्मा शामिल थे।

यूरोपीय व्यापार की संरचना और तरीके{Structure and Methods of European Trade}=>In British era

यूरोपीय व्यापार की संरचना और तरीके:-


जब यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों ने भारत से व्यापार करना शुरू किया तो उनके सामने एक ही समस्या थी कि भारत से लाए गए सामान के बदले भारत को किस चीज की आपूर्ति की जाए। उन्हें वित्तीयन की समस्या और एशिया के साथ प्रतिकूल व्यापार संतुलन की समस्या से जूझना पड़ा। उन्होंने सोलहवीं शताब्दी में दक्षिण अमेरिका की खानों से सोना और चांदी निकालकर यूरोप को समृद्ध किया और इसका उपयोग, अनिच्छुक रूप से, पूर्व से आयातित वस्तुओं को खरीदने में भी किया। यह दर्ज किया गया कि 1660 और 1699 के बीच पूरब को निर्यातित सोना और चांदी की मात्रा कुल निर्यात का 66 प्रतिशत थी। 1680-89 के मध्य यह प्रतिशत बढ़कर 87 तक पहुंच गया। अंग्रेजों ने 1700 और 1750 के बीच 270 लाख रुपए कीमत की चांदी और 90 लाख की अन्य वस्तुएं भारत भेजीं। लेकिन 1750 के बाद औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ स्थितियों में परिवर्तन होना शुरू हो गया। 1760 और 1809 के बीच 140 लाख रुपए मूल्य की चांदी निर्यात की गई जबकि अन्य वस्तुओं का निर्यात 185 लाख तक बढ़ गया।

✨वाणिज्यवादी विश्वास के अनुसार, बुलियन (सोने-चांदी की ईंटें) का निर्यात किसी देश की अर्थव्यवस्था एवं समृद्धि के लिए नुकसानदेह होता है। अतः इस दौरान यूरोपीय कंपनियां पूरब की वस्तुओं के बदले दूसरी चीजें देने का विकल्प ढूंढ रही थीं। अंतर- एशियाई व्यापार पर कब्जा करके उन्होंने इस समस्या का आशिक समाधान खोजा। यूरोपीय व्यापार मसालों के द्वीप से लॉग और जापान से तांबा भारत और चीन तक पहुंचाते थे, भारतीय सूती वस्त्र को दक्षिण-पूर्व एशिया और फारसी कालीन भारत पहुंचाते थे और इस तरह भारत से आयातित माल का कुछ मूल्य चुकाते थे। हालांकि 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही, अंग्रेज व्यापार घाटे का सम्पूर्ण समाधान तभी प्राप्त कर पाए, जब अंग्रेजों ने बंगाल से राजस्व वसूलना शुरू किया और चीन को अफीम का निर्यात करने लगे।

✨सोलहवीं और सबके दौरान# गई वस्तुओं की यूरोप, अफ्रीका, अमेरिकी महाद्वीप और पूर्व से भारी मुनाफा कमाते थे। यूरोपीय शक्तियों ने यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के बीच एक त्रिकोणीय व्यापार आरंभ किया। यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियां अमेरिका के बागानों के लिए दामों की नियुक्ति करती थीं और दाम से लाए जाते थे। इस पृष्ठभूमि में पूरव के साथ व्यापार आगे बढ़ा।

✨आरंभ से ही, यूरोपीय बाजारों में मसालों की मांग अत्यधिक थी। सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में काली मिर्च का व्यापार अपने उत्कर्ष पर था। हालांकि, सत्रहवीं शताब्दी का अंत होते-होते व्यापार में दूसरी वस्तुओं का भी महत्व बढ़ा। मसाले के स्थान पर कपड़ा, रेशम और शोरा का महत्व तेजी से बढ़ा। सत्रहवीं शताब्दी के दूसरे दशक से अंग्रेजी और डब कंपनियों में भारतीय वस्त्रों की मांग बढ़ गई। एशिया के दूसरे देशों में भारतीय कपड़ों की मांग बहुत थी और इसका उपयोग विनिमय वस्तु के रूप में किया जाता था। भारतीय कपड़े अपनी विविधता, उत्कृष्टता, प्रकार और डिजाइन के लिए प्रसिद्ध थे। उदाहरणार्थ, गुजरात, कोरोमण्डल और बंगाल में साढ़े, रंगे हुए, कढ़ाई वाले विभिन्न प्रकार के कपड़ों का उत्पादन किया जाता था। भारतीय रेशम और मलमल, मोटे और परिष्कृत दोनों प्रकार के, यूरोप और साथ ही साथ अफ्रीका और वेस्टइंडीज के बाजारों में भी पाए जाते थे। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1614 में अंग्रेज कंपनी ने सूरत से 12,000 कपड़े के थान की मांग की, जो 1664 में 750,000 थान से भी अधिक पहुंच गई जिसकी मात्रा कंपनी के समस्त व्यापार का 73 प्रतिशत आंकी गई। 1690 तक, कुल व्यापार में कपड़े का हिस्सा 83 प्रतिशत तक पहुंच गया। इस समय यूरोप में उच्च वर्गों के बीच बंगाल के मलमल और कोरोमंडल के छींटदार कपड़ों की मांग विशेष रूप से बढ़ गई।

✨इस बढ़ते हुए आयात से अंग्रेजी उत्पादक घबरा गए और उन्होंने भारतीय वस्त्रों के आयात पर प्रतिबंध लगाने के लिए राजनीतिक दबाव डाला। इसके परिणामस्वरूप, अंग्रेजी सरकार ने 1700, 1721 और 1735 में विभिन्न संरक्षणवादी विनियम पारित किए। इसके अतिरिक्त सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय बाजार में कच्चे रेशम की भी मांग बढ़ी।

✨फ्रांसीसियों और अंग्रेजों द्वारा साल्टमीटर (शोरा), जिसका उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था, की बेतहाशा मांग की गई। इसके अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण कच्चा माल होते हुए, शोरा, भारी वस्तु होने के कारण, का उपयोग जहाजों को संतुलित करने में भी किया जा सकता था। पटना शोरे के व्यापार के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा। इसी प्रकार, नील भी आयात की एक अन्य वस्तु थी जिसका उपयोग कपड़ों को रंगने में किया जाता था, क्योंकि यूरोप में सीने के लिए प्रयोग होने वाले परम्परागत पौधे की पत्तियों की तुलना में सस्ता एवं प्रयोग करने में आसान था।


निष्कर्ष->यूरोपीय व्यापार की संरचना और तरीके

प्रसिद्ध लोकदेवता रामदेवजी

बाबा रामदेव:- सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि राज्यों में 'रामसा पीर', 'रुणीचा रा धणी' व '...